________________ 114 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथवं पर्यनुयोगः सर्वभावप्रतिनियतस्वभावव्यावर्तक इत्ययुक्तः / तथाहि-एवमपि पर्यनुयोगः सम्भवति-वह्नदाहकस्वभावत्वे आकाशस्यापि स स्यात् , इतरथा वह्ररपि स न स्यादिति / स्यादेतत् यदि प्रत्यक्षसिद्धो व्यापारस्वभावो भवेत् , स च न तथेति प्रतिपादितम् / तत एवोक्तम्स्वभावेऽध्यक्षतः सिद्धे यदि पर्यनुयुज्यते / तत्रोत्तरमिदं युक्तं न दृष्टेऽनुपपन्नता // [ तन्न व्यापारो नाम कश्चिद यथाभ्युपगतः परः। 'अथानुमानग्राह्यत्वे स्यादयं दोषः, प्रत एवार्थापत्तिसमधिगम्यता तस्याभ्युपगता' / ननु दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यते इत्यदृष्टकल्पनाऽर्थापत्तिः तत्र कः पुनरसौ भावो व्यापारव्यतिरेकेरण नोपपद्यते यो व्यापारं कल्पयति ? 'अर्थ' इति चेत् ? का पुनरस्य तेन विनाऽनुपपद्यमानता? नोत्पत्तिः, स्वहेतुतस्तस्या भावात् / स्वभावता को कारकपराधीनता रूप मानी जाय तो यह भी असंगत है क्योंकि अनुत्पन्न व्यापार असत् होने से कारकों का पराधीन नहीं हो सकता और उसे उत्पन्न मानने पर फिर अन्य की पराधीनता क्यों होगी ? उत्पत्ति के बाद भी कारकों की पराधीनता कहते हैं तो उसके विपरीत, कारकसमूह को ही व्यापारपराधीन क्यों न माना जाय ! [वस्तु स्वरूप के अनिश्चय की आपत्ति अशक्य ] पूर्वपक्षी:- व्यापारस्वभावता के ऊपर आपने जो विविध प्रश्न किये, ऐसे प्रश्न हर चीज पर करते रहेंगे तो उन प्रश्नों से सभी पदार्थों के विशिष्ट स्वभाव का निवर्तन हो जायगा, यानी किसी भी पदार्थ का कुछ भी स्वरूप ही निश्चित न हो सकेगा। इसलिये ऐसे प्रश्न अयुक्त हैं। जैसे, कोई प्रश्न करें कि क्या अग्नि दाहक स्वभाव हो सकता है ? नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो आक दाहकस्वभाव मानना पडेगा, उसको दाहक स्वभाव न मानना हो तो अग्नि को भी दाहक स्वभाव क्यों मानें ? इत्यादि, तो अग्नि का स्वभाव अनिश्चित रहेगा। उत्तरपक्षी:- हो सकता है, यदि अग्नि के दाहकस्वभाव की भाँति व्यापारस्वभाव भी प्रत्यक्षसिद्ध होता / किंतु वह प्रत्यक्षसिद्व नहीं है यह बात तो पहले ही हो गयी है / तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष से जो सिद्ध नहीं होता उसी के विषय में तथोक्त प्रश्नों को अवकाश है, जो प्रत्यक्षसिद्ध है उसके विषय में नहीं, क्योंकि कहा गया है- “स्वभाव प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर भी उसके ऊपर प्रश्न कोई करे तो उसका यही स्पष्ट उत्तर है कि जो बात दृष्ट यानी प्रत्यक्ष सिद्ध है उसमें कोई अनुपपत्ति नहीं होती।" निष्कर्ष- अन्य वादीओं ने जैसे व्यापार को माना है वैसा कोई व्यापार है नहीं। . 1 [व्यापार अर्थापत्तिगम्य होने का कथन अयुक्त ] व्यापारवादी:- व्यापार प्रत्यक्षसिद्ध न होने से पूर्वोक्त विकल्पों की संभावना और उसमें दोषपरम्परा का प्रवेश व्यापार को यदि हम अनुमानसिद्ध मानें तब तो ठीक है किंतु इसीलिये व्यापार को हम अनुमानबोध्य न मान कर अर्थापत्तिप्रमाणबोध्य मानते हैं जिससे वे सब दोष निरवकाश बनें / उत्तरपक्षी:- अर्थापत्ति से अदृष्टभाव की कल्पना वहाँ होती है जहाँ दृष्ट या श्रुत किसी एक पदार्थ की उपपत्ति उस अदृष्ट भाव के विना शक्य न हो / प्रस्तुत में वह कौनसा भाव है जो व्यापार के अभाव में अनुपपन्न होने से व्यापार की कल्पना करनी पडै ?