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________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता 115 किंच, असावर्थः किम् एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानस्तं कल्पयति ? उत सर्वज्ञातृव्यापारमन्तरेण ? इति वक्तव्यम् / तत्र पदि सकलज्ञातव्यापारमन्तरेणेति पक्षः तदान्धानामपि रूपदर्शनं स्यात् , तद्वयापारमन्तरेणार्थाभावात् सर्वज्ञताप्रसंगश्च / अथ एकज्ञातृव्यापारमन्तरेणानुपपत्तिस्तहि यावदर्थसद्भावस्तावत् तस्यार्थदर्शनमिति सुप्ताद्यभावः। अथ अर्थधर्मोऽर्थप्रकाशतालक्षणो व्यापारमन्तरेणानुपपद्यमानः तं कल्पयति / ननु साऽप्यर्थप्रकाशताऽर्थधर्मो यद्यर्थ एव तदाऽर्थपक्षोक्तो दोषः, अथ तद्वयतिरिक्तः, तदा तस्य स्वरूपं वक्तव्यम् / 'तस्यानुभूयमानता सा' इति चेत् ? न, पर्यायमात्रमेतत् न तत्स्वरूपप्रतिपत्तिरिति स एव प्रश्नः / किं च प्रकाशोऽनुभवश्च ज्ञानमेव, तदनवगमे तत्कर्मतायाः सुतरामनवगम इत्यर्थप्रकाशता-अनुभूयमानते स्वरूपेणानवगते कथं ज्ञातृव्यापारपरिकल्पिके ? व्यापारवादी:- अर्थ ही ऐसा है जिसकी व्यापार के विना उपपत्ति नहीं। उत्तरपक्षी:- व्यापार के विना अर्थ की अनुपपत्ति का क्या मतलब है? 'व्यापार के विना अर्थ उत्पन्न नहीं होता' ऐसा आशय अयुक्त है क्योंकि अर्थ की उत्पत्ति तो अपने कारणों से ही होती है, व्यापार से नहीं। [ एकज्ञातृव्यापार और सर्वज्ञातृव्यापार अर्थापत्तिगम्य कैसे ? ] दूसरी बात- आपको यह कहना होगा कि अर्थ की अनुपपत्ति क्या एक ज्ञाता के व्यापार के विना होती है ? या सकलज्ञाताओं के व्यापार के विना ? यदि दूसरा विकल्प सकलज्ञाताओं के व्यापार के विना अर्थानुपपत्ति को मानेंगे तब तो एक आपत्ति यह होगी कि अन्ध पुरुष को भी रूप का दर्शन होगा, क्योंकि वह भी सकलज्ञाताओं में अन्तर्गत है, अत: उसके व्यापार के विना भी अर्थ अनुपपन्न ही रहेगा, फलतः अर्थ की उपपत्ति से अन्ध पुरुष का भी रूपग्रहणानुकुल व्यापार आपको मानना पड़ेगा, तो फिर अन्धपुरुष को रूपदर्शन क्यों नहीं होगा ? दसरी आपत्ति यह होगी कि सकल ज्ञाता सर्वज्ञ बन जायेंगे, क्योंकि किसी भी अर्थ की उपपत्ति ही तभी होगी जब उसमें सकलज्ञाता का व्यापार माना . जायेगा, तो फिर कोई भी अर्थ किसी भी ज्ञाता को अज्ञात न रहेगा। ____ यदि प्रथम विकल्प-एकज्ञाता के व्यापार विना अर्थ की अनुपपत्ति मानी जाय तो जब तक अर्थ की सत्ता रहेगी वहाँ तक उस एक ज्ञाता का सतत व्यापार भी मानना होगा क्योंकि उस के विना वह अनुपपन्न है / व्यापार सतत रहेगा तो तज्जन्य अर्थदर्शन भी सतत चालु रहेगा, तो वह ज्ञाता कभी सो नहीं पायेगा, उसका आराम ही हराम हो जायेगा, क्योंकि अर्थदर्शन चालु रहने पर कभी भी . नींद नहीं आती। [ अर्थप्रकाशता की अनुपपत्ति से ज्ञातृव्यापार की सिद्धि असंभव ] व्यापारवादी:- अर्थ की अनुपपत्ति से अर्थप्रकाशतारूप अर्थधर्म की अनुपपत्ति अभिप्रेत है। आशय यह है कि ज्ञातृव्यापार के विना अर्थ की प्रकाशता (यानी ज्ञानविषयता) उपपन्न न होने से ज्ञातृव्यापार की कल्पना होती है। उत्तरपक्षी:- वह अर्थप्रकाशतारूप अर्थधर्म क्या अर्थरूप ही है या उससे भिन्नस्वरूप है ? यदि अर्थरूप ही हो तब तो अर्थपक्ष में जो दोष बताया गया वह लगेगा / यदि अर्थ से भिन्नरूप अर्थप्रकाशता है तो उसका क्या स्वरूप है यह बताओ।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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