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________________ 48.. सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अथाऽदृश्यं तच्छरीरमतस्तत्र सदपि नोपलभ्यत इत्ययमदोषः / नन्वेवमपि 'अस्मिन् सति इदं स्थावरादिकं जातम्' इति प्रतिपत्तिर्माभूत , तथाऽन्य (ऽप्यन्य) कारणभावेऽपि यथातीन्द्रियस्येन्द्रियर याभावे रूपादिज्ञानं नोपजायते तथा पृथिव्यादिकारणसाकल्येऽपि कदाचित तच्छरीरविरहे तत्स्थावरादिकार्य नोपजायत इति व्यतिरेकात् प्रतीतिः किं न स्यात् ? य(दा)द्यत्र तच्छरीरं नियमेन संनिहितमिति चा(?ना)यं दोषस्तहि युगपद्धाविषु त्रिलोकाधिकरणेष भावेष का वार्ता? न द्यकस्य मतस्य सावयवस्य महेश्वरवपुषोऽपि युगपत्सकलव्याप्तिः सम्भवति / अमूर्त्तत्वे निरंशप्रसंगादाकाशमेव तच्छरीरम् , तस्य तच्छरोरत्वेनाद्याप्यसिद्धत्वात् / ___अथ यावन्ति (अ) क्रमभावीन्यकुरादिकार्याणि तावन्ति तथाविधानि तच्छरीराणि कल्प्यन्ते तर्हि तच्छरीरैः सकलं जगदापूरितमिति नाकुरादिकार्यरुत्पत्तव्यम् तदुत्पत्तिदेशाभावात् / नापि माहेश्वरैः क्वचित्प्रवत्तितव्यम् कुतश्चिद्वा निवत्तितव्यम् तच्छरीराणां पादाद्यभिघातभयात् / अपि च, तान्यपि कार्याणि, सावयवत्वात् कुम्भवत , ततस्तत्करणे तावन्त्येवाऽपराणि तस्य शरीराणि कल्पनोयानि, पुनस्तत्करणेऽपि नानवस्थातो मुक्तिः / तन्न शरीरव्यापारसहायोऽप्यसौ स्थवरादिकार्य करोतीति कल्पयितुयुक्तम् , अनेकदोषप्रसंगात् / [ईश्वर का शरीर अदृश्य होने की बात असंगत ] यदि कहें-उसके शरीर को भी अदृश्य ही मान लेने से अनुपलब्धिमूलक कोई दोष नहीं होगातो यहाँ भी, 'इसके होने पर यह स्थावरादि उत्पन्न हुए' ऐसा अन्वयबोध यद्यपि नहीं होगा, किन्तु व्यतिरेकबोध क्यों नहीं होगा? आशय यह है कि, जैसे नेत्रेन्द्रिय यद्यपि अतीन्द्रिय है फिर भी चाक्षुष प्रत्यक्ष के सभी कारण उपस्थित रहने पर भी नेत्रेन्द्रिय के अभाव में रूपादिज्ञान उत्पन्न नहीं होता ऐसा व्यतिरेक बोध होता है उसी प्रकार ईश्वर शरीर अदृश्य होने पर भी 'पृथ्वी आदि सब कारण ___ स्थत रहने पर ईश्वरदेह के अभाव में यह स्थावरादि कार्य उत्पन्न नहीं हुआ' इस रीति से व्यतिरेक से उसका बोध क्यों नहीं होगा? यदि ऐसा कहें कि-'यहाँ उसका शरीर नियमतः ( अचूक ) संनिहित रहता है, अतः व्यतिरेक से उसका बोध नहीं हो पाता / '- तब तो तीन लोक के अधिकरण में रहे हुए समानकालभावि अन्य पदार्थ का जन्म कसे होगा ? जब कि ईश्वरदेह तो केवल उक्त स्थावरादिकार्यों के देश में ही संनिहित है, सर्वत्र तो है नहीं / मूर्त, सावयव एवं एक ही ईश्वरदेह एक साथ सभी देशों में उपस्थित नहीं रह सकता। (मूर्त पदार्थ कभी व्यापक नहीं होता है / ) यदि उसके देह को अमूर्त मानेंगे तो सावयव नहीं किन्तु निरंश ही मानना होगा, तात्पर्य आकाश को ही उसके सर्व व्यापक देह के रूप में मानना पड़ेगा, किन्तु अब तक किसी ने भी यह सिद्ध नहीं कर दिखाया कि आकाश ईश्वर का शरीर है। [ ईश्वर के अनेक शरीर की कल्पना अयुक्त ] यदि कहें-'एक साथ होने वाले अंकुरादि जितने कार्य हैं, उत्पत्ति के लिये उसके उतने ही शरीर मान लेंगे / अतः भिन्न भिन्न देश में एक साथ सब कार्य उत्पन्न हो सकेंगे।'-तो यह कल्पना मिथ्या है, क्योंकि विश्व के सभी देश में कुछ न कुछ कार्य तो पल पल उत्पन्न होते ही रहते हैं अतः प्रत्येक पल में सर्व देश में ईश्वर का एक एक शरीर मानना होगा, इस प्रकार सारा जगत् उसके शरीरों से ही आक्रान्त हो जाने से अंकुरादि कार्यों को उत्पन्न होने के लिये रिक्त स्थान न रहने से
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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