SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 481 नापि सत्तामात्रेणासो स्वकार्य करोतीति कल्पयितु युक्तं, शरीरकल्पनवैयर्थ्यप्रसंगात् / अथ सर्वोत्पत्तिमतामीश्वरो निमित्तकारणम् , तस्य तत्कारणत्वं सकलकार्यकारणपरिज्ञाने नान्यथा. तत्परिज्ञान (स्य) चानित्यस्येन्द्रियशरीरमन्तरेणानुपपत्तेरतस्तदर्थ तत्परिकल्पनमिति चेत् ? न, सकलहेतुफलविषयं तस्या)स्येन्द्रियशरीरजं जानन सम्भवति. इन्द्रियाणां यगपत्सर्वार्थसंनिकर्षाभावात: इन्द्रियार्थसंनिकर्षजं च नैयायिकैः प्रत्यक्षमभ्युपगम्यते / तदुक्तम् - [ न्यायद० 1-1-4 ] इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्।" सामग्री-फल स्वरूपविशेषणपक्षत्रयेऽपीन्द्रियार्थसंनिकर्षजस्य तस्य प्रामाण्याभ्युपगमात , तथा "प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तो प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" [ वात्स्या० भा० पृ० 1 ] इत्यत्र भाष्यम्"प्रमातृ-प्रमेयाभ्यामर्थान्तरं प्रमितिलक्षणे फले साधकतम (व? )त्वाद् , इति अर्थः सहकारि प्रमाणं" प्रतिपादितम् / सहकारित्वं चार्थस्य प्रमाणस्य फलजनने व्याप्रियमाणस्य फलजनकत्वेन तस्यापि सहायभावः, 'सह करोतीति सहकारि' इति व्युत्पत्तेः / न चाऽसंनिहितस्यार्थस्यातीतस्याऽनागतस्य वा प्रमितिलक्षणफलजननं प्रति व्यापारः सम्भवति / न च प्रमित्यजनकोऽर्थः, तदभ्युपगमे न प्रमाणविषयतान्यतः (तेत्यतः) सेन्द्रियशरीरजनितप्रत्यक्षज्ञानवत्त्वाभ्युपगमे महेशस्य न सकलकार्यकारणविषयज्ञानसम्भव इति शरीरसम्बन्धात् तस्य जगत्कर्तृत्वाभ्युपगमे तदकर्तृत्वमेव प्रसक्तम् , इति न तस्याऽदृश्यशरीरसम्बन्धोऽभ्युपगन्तुयुक्तः। उनकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। दूसरी बात, माहेश्वरवृन्द (ईश्वरभक्त गण) कहीं भी एक कदम न तो आगे बढ सकेंगे, न पीछे हठ सकेंगे, कारण, सर्वत्र ईश्वरशरीर विद्यमान होने से उसको पादाभिघात होने का भय रहता है। तदुपरांत, वे शरीर भी सावयव होने के कारण घटादि की तरह कार्यरूप ही है अतः उनके उत्पादन में और भी नये शरीरों की कल्पना कीजिये, उन नये शरीरों के लिये भी नये नये शरीरों की कल्पना करते ही रहो, अन्त नहीं आयेगा। निष्कर्ष, 'शरीर व्यापार की सहायता से ईश्वर स्थावरादि कार्य उत्पन्न करता है' यह कल्पना अनेक दोष उपनिपात के कारण अयुक्त है। - [इन्द्रिय से उत्पन्न ज्ञान सम्पूर्ण नहीं हो सकता ] ईश्वर केवल अपनी सत्ता के प्रभाव से ही सब कार्य उत्पन्न करता है यह कल्पना अयुक्त है क्योंकि शरीर की कल्पना निरर्थक हो जाने का दोष प्रसंग आता है / यदि कहें कि-'हर कोई उत्पत्ति'शील कार्य का निमित्त कारण ईश्वर है, यदि उसे सभी काय-कारण का ज्ञान होगा तभी वह निमित्त कारण बन सकता है, अन्यथा नहीं। सकल कारण का ज्ञान अनित्य होने से शरीर और इन्द्रिय के विना सम्भव नहीं, अत: उसके लिये उस की कल्पना व्यर्थ नहीं होगी।'- यह बात ठीक नहीं है, इन्द्रिय-शरीर से उत्पन्न कोई भी ज्ञान सकल कार्य कारण विषयक हो यह कभी सम्भव नहीं है / कारण, सकल अर्थों के साथ इन्द्रियों का एक ही काल में संनिकर्ष नहीं हो सकता। नैयायिक तो इन्द्रिय-अर्थ दोनों के संनिकर्ष से उत्पन्न होने वाले को ही प्रत्यक्ष मानते हैं / जैसे कि न्यायसूत्र में कहा है- .. •पाठद्वयमिदं पूर्वमद्रिते क्रमशः 'तत्परिज्ञान (ज्ञान)वा (चा)नित्य (त्यं)स्ये (से)न्द्रियशरीरमन्तरेणानुपपत्तेः (पन्नम्)' - इति तथा 'तस्या (तस्याऽनित्यं)स्ये (से )न्द्रियशरीरज' इति च वर्तते, लिम्बडीहस्तप्रतानुसारेण चात्र शोधितम् /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy