________________ प्रथमखण्ड-का० १-ई० शब्दद्रव्यत्वसाधनम् 565 यदप्यात्मनो विभुत्वसाधनं कश्चिदुपन्यस्तम्-"अदृष्टं स्वाश्रयसंयुक्ते प्राश्रयान्तरे कर्म आरभते, एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणत्वात् , यो य एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुगुणः स स स्वाश्रयसंयुक्ते आश्रयान्तरे कर्म प्रारभते यथा वेगः, तथा चाऽदृष्टम् , तस्मात् तदपि स्वाश्रयसंयुक्त आश्रयान्तरे कर्म प्रारभते इति / न चाऽसिद्ध क्रियाहेतुगुणत्वम् , 'अग्नेरूद्धज्वलनम् , वायोस्तिर्यपवनम् , अणु-मनसोश्चाद्यं कर्म देवदत्तविशेषगुणकारितम् , कार्यत्वे सति देवदत्तस्योपकारकत्वात् , पाण्यादिपरिस्पन्दवत्' / एकद्रव्यत्वं चैकस्यात्मनस्तदाश्रयत्वात् , 'एकद्रव्यमदृष्टम् विशेषगुणत्वात् , शब्दवत्' / / ___ 'एकद्रव्यत्वात्' इत्युच्यमाने रूपादिभिर्व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थ 'क्रियाहेतुगुणत्वात' इत्युक्तम् / 'क्रियाहेतुगुणत्वात्' इत्युच्यमाने मुशल-हस्तसंयोगेन स्वाश्रयाऽसंयुक्तस्तम्भादिचलनहेतुना व्यभिचारः, तन्निवृच्यर्थम् ‘एकद्रव्यत्वे सति' इति विशेषणम् / 'एकद्रव्यत्वे सति क्रियाहेतुत्वाद्' इत्युच्यमाने स्वाश्रयाऽसंयुक्तलोहादिक्रियाहेतुनाऽयस्कान्तेन व्यभिचारः, तन्निवृत्त्यर्थम् ‘गुणत्वात्' इत्यभिधानम् / .. [ अदृष्ट का आश्रय व्यापक होने का अनुमान-पूर्वपक्ष ] कुछ विद्वानों ने आत्मा में विभुपरिमाण की सिद्धि के लिये यह अनुमान दिखाया हैअदृष्ट अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्य द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है, क्योंकि वह एक द्रव्य में समवेत होने के साथ क्रिया का हेतुभूत गुण है / (व्याप्ति:-) जो जो एक द्रव्य में समवेत और क्रिया के भूत गुणरूप होता है वह अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्य द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करता है, उदा० वेग नाम का गुण / अदृष्ट भी वैसा ही है, अत: वह भी अपने आश्रय से संयुक्त ही अन्यद्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करेगा। इस अनुमान का आशय यह हुआ कि दूर रही हुयी चीज वस्तु यदि अदृष्ट के सहारे अपने को हस्तगत हो जाती है तो वहाँ आत्मा का विभूत्व इसलिये सिद्ध होता है कि अदृष्ट का आश्रय आत्मा व्यापक है तभी तो वह अन्य द्रव्य उस के साथ संयुक्त होगा और तभी उसमें अदृष्ट से क्रिया उत्पन्न होगी जिस के फलस्वरूप वह अपने हाथों में आ पडेगा। इस अनुमान में 'क्रियाहेतुगुणत्व' असिद्ध नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी भी अनुमान से सिद्धि शक्य है-देखिये, अग्नि का ज्वलन हमेशा उर्ध्व दिशा में, वायु का संचरण हमेशा तिरछी दिशा में होता है और अणु तथा मन में आद्य क्रिया की उत्पत्ति जो होती है यह सब देवदत्तआदि के विशेषगुण का फल है, (हेतु:-) क्योंकि ये सब कार्यरूप है और देवदत्तादि के उपकारक हैं, उदा० देवदत्त के हाथ-पैर का संचालन / [ देवदत्त के हाथ-पैर का संचालन कार्यभूत है और देवदत्त को उपकारक है, तथा वह देवदत्त के ही विशेषगुण (प्रयत्न) से जन्य है / अग्नि के उद्धज्वलन आदि में देवदत्त का प्रयत्न तो नहीं होता, अत: उसके अदृष्ट गुण की सिद्धि होगी। तदुपरांत, अदृष्ट में एकद्रव्यत्व भी, उसका आश्रयभत आत्मा एक होने से है। उसकी सिद्धि इस अनुमान से हो सकती है कि अदृष्ट एकद्रव्य में आश्रित है क्योंकि विशेषगुण है, उदा० शब्द / _[ अदृष्ट में एकद्रव्यत्व के अनुमान का पृथक्करण ] यदि उक्त विभुत्वसाधक अनुमान में सिर्फ 'एकद्रव्यत्वात्' इतना ही हेतु किया जाय तो रूपादि में साध्यद्रोह होगा क्योंकि रूपादि गुण भी एक द्रव्य में ही रहते हैं, संख्यादि की तरह अनेक द्रव्य में नहीं रहते, और रूपादि में 'अपने आश्रय के साथ संयुक्त ही द्रव्य में क्रिया को उत्पन्न करना' यह साध्य तो नहीं रहता / इस दोष को निवृत्ति के लिये 'कियाहेतुगुणत्वात्' ऐसा जोडा गया है। रूपादि