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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वराकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 519 व्याप्तत्वात् ? तदभावेऽपि प्रवृत्तावन्मत्तकप्रवृत्तिवद् न बुद्धिपूर्वकेश्वरप्रवृत्तिःस्यात्, हेयोपादेयजिहा. सोपादित्से अप्यनाप्तकामत्वेन व्याप्ते, अवाप्तकामस्य हेयोपादेयजिहासोपादित्साऽनुपपत्तेः / अनाप्तकामत्वमप्यनीश्वरत्वेन व्याप्तम , ईश्वरस्याऽनाप्तकामत्वाऽयोगात , इति यत्र बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिष्यते तत्र हेयोपादेयजिहासोपादित्से अवश्यमंगीकर्तव्ये, यत्र च ते तत्रानाप्तकामत्वम् , यत्र च तव तत्रानोश्वरत्वम् इति प्रसंगसाधनम् / ईश्वरत्वे चावाप्तकामत्वम् , अवाप्तकामत्वाच्च न हेयोपादेयविषये तद्धानोपादानेच्छा, तदभावे न बुद्धिपूर्विका प्रवृत्तिरिति प्रसंगविपर्ययः / अत एव स्वत. न्त्रसाधनपक्षे यदाश्रयासिद्धत्वादिहेतुदोषोद्भावनम् तदसंगतम, व्याप्तिप्रसिद्धिमात्रस्यैवात्रोपयोगात्, सा च प्रतिपादिता / 'या तु प्रवृत्तिः शरीरादिसर्गेसा कोडार्था, अवाप्तकामानामेव च क्रीडा भवति' इति यदक्तम तदसंगतम . "रतिमविन्दतामेव क्रीडा भवति, न च रत्यर्थी भगवान द.खाभावात" इति [4-121 ] वात्तिककृतैव प्रतिपादितत्वात् / यच्चोक्तम् न हि दुःखिता: क्रीडासु प्रवर्तन्ते इतितत् प्रक्रमानपेक्षं वचनम् दुःखाभावेऽपि क्रीडावतां रागाद्यासक्तिनिमित्तेष्टसाधनविषयव्यतिरेकेण -- तस्याऽसम्भवात्। एक तो ईश्वर का स्वरूप ही सिद्ध नहीं है और दूसरे, आप की मान्यता के ऊपर विचार करने पर तो उस में अव्यभिचरित रागादि-अभावसाधक हेतु भी कितना दूर भग जाता है / [धर्म के विरह में सम्यग्ज्ञानादि का अभाव ] यह जो कहा था-रागादि का कारण विपर्यास है और विपर्यास का कारण अधर्म है / भगवान् में अधर्म नहीं है [ 404-10 ] इत्यादि वह भी असार है / कारण, अधर्म की तरह ईश्वर से धर्म भी न होने से तद्धेतुक सम्यग्ज्ञानादि का भी वहाँ असंभव है यह पहले कहा है। तथा, यह जो कहा है-इष्ट और अनिष्ट के साधनभूत विषयों में ही रागादि उत्पन्न होते हुए दिखते हैं / भगवान् को तो कोई इष्ट-अनिष्ट का साधनभूत विषय ही नहीं है क्योंकि वह कृतकृत्य है / ....[ 404-12 ] इत्यादि, यह भी असार है, क्योंकि जब ईश्वर को कोई इष्टानिष्टसाधनभूत विषय ही नहीं है तो ष्ट के उपादान और अनिष्ट के वर्जन के लिये क्यों प्रवृत्ति करता है ? जो प्रवृत्ति बुद्धिपूर्वक की जाती है वह अवश्यमेव हेय की त्यागेच्छा से व्याप्त ही होती है यह नियम है। इसलिये यदि त्यागेच्छा और ग्रहणेच्छा के विना भी ईश्वर की प्रवृत्ति होगी तो वह बुद्धिपूर्वक नहीं किन्तु उन्मत्त लोगों की तरह उन्मादपूर्वक ही होगी। तदुपरांत, हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा ये दोनों अनाप्तकामत्व-'अपूर्ण इच्छावत्त्व' से व्याप्त है, क्योंकि जिसकी सभी इच्छा समाप्त हो गयी है ऐसा समाप्तकाम जो होता है उसे हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा कभी शेष नहीं रहती। [अनाप्तकामता से अनीश्वरत्व का आपादन] तथा, अनाप्त कामता अनीश्वरत्व का व्याप्य है अर्थात् जहाँ अनाप्तकामता होगी वहाँ ऐश्वर्य नहीं होगा, क्योंकि जो ईश्वर होता है वह कभी अनाप्तकाम नहीं होता। इस प्रकार, ऐसा प्रसंगसाधन दिखाया जा सकता है कि जिसकी बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति मानेगे उसमें हेय की त्यागेच्छा और उपादेय की ग्रहणेच्छा अवश्य मानी होगी, ऐसी दो इच्छा मानेंगे उसमें अनैश्वर्य भी मानना होगा। इस प्रसंग का यह विपर्यय फलित होगा कि ईश्वर में यदि अवाप्तकामता है तो उसमें हेयविषय की त्यागेच्छा और उपादेयविषय की ग्रहणेच्छा नहीं मान सकेंगे, और उक्त ईच्छाद्वय के अभाव में बुद्धि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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