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________________ 518 ___ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्युक्तम् 'ज्ञानस्य स्वविषयसदर्थप्रकाशत्वं नाम स्वभावः, तस्यान्यथाभावः कुतश्चिद्दोषसद्भावात'-तत् सत्यमेव / यच्चोक्तम् 'यत् पुनश्चक्षुराद्यनाश्रितं न च रागादिमलावृतं तस्य विषयप्रकाशनस्वभावस्य'....इत्यादि, तदप्यसंगतम , यतो न चक्षराधनाश्रितं ज्ञानं परस्य सिद्धम, तत्सिद्धौ चक्षराद्यनाश्रितस्य ज्ञानस्येव सुखस्यापि सिद्धेरानन्दरूपता कथं मुक्तानां न संगच्छते येन 'सुखादिगुणरहितमात्मनः स्वरूपं मुक्तिः' इत्यभ्युपगमः शोभेत ? न च रागादेरावरणस्याभावो महेशे सिद्धः येन तज्ज्ञानमनावृतमशेषपदार्थविषयं तत्र सिद्धिमुपगच्छेत् , तत्स्वरूपस्यैवाऽसिद्धत्वात् तत्र रागाद्यभावप्रतिपादकस्याऽव्यभिचरितस्य हेतोस्त्वदभ्युपगमविचारणया दूरापास्तत्वाच्च / यत्तुक्तम् विपर्यासकारणा रागादयः, विपर्यासश्चाऽधर्मनिमित्तः न च भगवत्यधर्मः....इति तदप्यसारम् , अधर्मवत् धर्मस्यापि तद्धेतोश्च सम्यग्ज्ञानादेस्तत्राऽसंभवस्य प्रतिपादितत्वात् / यच्चोक्तम्-रागादयः इष्टानिष्टसाधनेषु विषयेषूपजायमाना दृष्टाः, न च भगवतः कश्चिदिष्टाऽनिष्टसाधनो विषयः, अवाप्तकामत्वात....इति तदप्यसारम् , यतो यदि इष्टानिष्टसाधनो न तस्य कश्चिद्विषयः, कथं तहि असाविष्टाऽनिष्टोपादान-परिवर्जनार्थ प्रवर्तते, बुद्धिपूविकायाः प्रवृत्तेहेयोपादेयजिहासोपादित्सापूर्वकत्वेन सर्वज्ञता भी नहीं रह सकेगी अतः सर्वज्ञ के अधिष्ठान का साधक हेतु उसके अभाव को ही सिद्ध करेगा इसलिये वह हेतु भी विरोधी हो गया। यह नहीं कह सकते कि-गगन और ईश्वर दोनों में उक्त समानता होने पर भी सर्वविषयक ज्ञान का समवाय ईश्वर में ही होता है अत एव ईश्वर में ही सर्वज्ञता रहेगी, आकाशादि में नहीं-ऐसा इस लिये नहीं कह सकते, कि समवाय का पहले ही निषेध किया जा चुका है / कदाचित् उसको मान लिया जाय तो भी वह नित्य और व्यापक होने से ईश्वरवत गगन में भी ज्ञान का समवाय अक्षुण्ण होने से सर्वज्ञता भी माननी होगी। यदि कहें कि-यद्यपि ईश्वर और आकाश दोनों में समवाय की समानता होने पर भी समवायिभूत ईश्वर और गगन ही अन्योन्य ऐसे विलक्षण है कि सर्वज्ञता केवल इश्वर में ही रहेगी-तो यह भी कहना शक्य नहीं / कारण. वह अन्योन्यविलक्षणता ही असिद्ध है। यदि उसको सिद्ध मानें तो फिर समवाय की कल्पना दी निरर्थक हो जाने का आगे दिखाया जायेगा। तथा सत्तामात्र से ही अधिष्ठान मानने पर किसो भी ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं रहती तो फिर सर्व पदार्थवृद के कारकों के ज्ञान की भी क्या आवश्यकता रहेगी ? कुछ नहीं ! [ इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानवत् मुक्ति में सुखादि की प्रसक्ति ] यह जो पूर्व पक्ष में कहा था-अपने विषयभूत सदर्थ का प्रकाशत्व यह ज्ञान का स्वभाव है और किसी दोष के सद्भाव में वह स्वभाव विपरीत हो जाता है [ ४०४-६]-यह तो ठीक ही है। किन्त यह जा कहा है-जा नेत्रादि से निरपेक्ष एवं रागादिमल से अनावृत ज्ञान होता है वह जब विषयप्रकाशनस्वभाववाला है तब विषयों के प्रकाशनसामथ्र्य में कसे विधात हो सकता है ? - इत्यादि ४०४-७]-वह तो असंगत ही है क्योंकि आपके मत में नेत्रादिनिरपेक्ष ज्ञान ही सिद्ध नहीं है। नामनिरपेक्ष ज्ञान को सिद्ध माना जाय तो फिर नेत्रादि इन्द्रियनिरपेक्ष सूख को भी सिद्ध में मान लेने से मक्तात्माओं में आनन्दरूपता क्यो संगत नहीं होगी? फिर सूखादिगुणशून्य आत्मस्वरूप कोनि मानना कैसे शोभास्पद कहा जायेगा तथा आपके ईश्वर में रागादि आवरण का अभाव भी सिद्ध नहीं है जिससे कि उसमें अनावृत और सकलपदार्थविषयक ज्ञान की सिद्धि हो सके, क्योंकि
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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