________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 351 न च सुखादिसामानाधिकरण्येनोपजायमानस्यवाहप्रत्ययस्योपचरितविषयतेति वक्तु शक्यम् , अग्नावग्निप्रत्ययवदबाधितत्वेनास्खलद्रूपत्वेन चाऽस्याऽत्र मुख्यत्वात् , गौरत्वादेस्तु पुद्गलधर्मत्वेन बाह्य न्द्रियग्राह्यतयान्तर्मुखाकाराऽनिन्द्रियाहंप्रत्ययविषयत्वाऽसम्भवात् / न च गौरत्वादिरूपाश्रयभूतस्य प्रतिक्षणविशरारत्वेनाभ्युपगमविषयस्य शरीरस्य य एवाऽहं प्राग मित्रं दृष्टवान् स एवाहं वर्षपंचकादिव्यवधानेन स्पृशामि' इति स्थिरालम्बनत्वेनानुभूयमानप्रत्ययविषयत्वं युक्तम् , अन्यथा रूपविषयत्वेनानुभूयमानस्य तस्य रसाद्यालम्बनत्वं स्यात् / न च सुखादिविवत्मिकात्मालम्बनत्वे किंचिद् बाधकमुत्पश्यामः येन तद्विषयत्वेनास्य भ्रान्तत्वं स्यात् / नापि तत्र तस्य स्खलद्रूपता येन वाहीके गोप्रत्ययस्येवोपचरितत्वकल्पना युक्तिमती स्यात् / तस्मादबाधिताऽस्खलद्रूपाऽहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनो नाऽसिद्धिः। शेषस्तु पूर्वपक्षो निःसारतया न प्रतिसमाधानमहतीत्युपेक्षितः / उत्तरपक्षी:-आपकी बात में कोई संगति नहीं है। देह में भी अहमाकार बद्धि उपचार से ही होती है। कारण संसारी आत्मा को भोगादि के सम्पादन में देह अत्यधिक उपकारी है, अतः आत्मा के साथ क्षीरनीरवत् संबद्ध एवं भोगाश्रय (यानी भोग का अवच्छेदक विधया अधिकरण) देह में भोगकतृत्व के उपचार का निमित्त आत्मोपकारकत्व विद्यमान है। जो देह से भी दूरस्थ नौकरादि अपने अत्यंत उपकारक होते हैं उसमें भी स्वोपकारकत्व निमित्त से 'जो यह नौकर है वही मैं हूँ' इस प्रकार की उपचरित बुद्धि देखी जाती है तो निकटवर्ती अत्यन्तोपकारक देह में औपचारिक आत्म बुद्धि का होना युक्तियुक्त ही है / [सुखादिसमानाधिकरणक अहं प्रतीति उपचरित क्यों नहीं ? ] पूर्वपक्षीः-स्थूलतादिसमानाधिकरणतया होने वाली अहं प्रतीति को भ्रम मानने के बदले सुखसमानाधिकरणतया होने वाली अहं-प्रतीति को ही भ्रम मान कर उसमें ही उपचरितविषयता क्यों न माने? उत्तरपक्षी:-उसको भ्रम नहीं मान सकते क्योंकि अग्नि में होने वाली अग्नि की प्रतीति जैसे अबाधित और अस्खलद्रूप होती है वैसे सुखसमानाधिकरणतया होने वाली अहं प्रतीति भी अबाधित और अस्खलद्रूपं होने से वह मुख्यरूप ही है। उपचरित नहीं है / अबाधित इसलिये कि सुखादि की प्रतीति के बाद मैं सुखवाला नहीं हूं' ऐसी कोई बाधक प्रतीति नहीं होती / अस्खलद्रूप इसलिये कि सुखादि की प्रतीति और अहंप्रतीति में सामानाधिकरण्य होने में कोई अयोग्यता या बाध नहीं है, अर्थात् देह भिन्न आत्मा में सुखादि का सद्भाव सुघटित है, जब कि गौरवर्णादि तो पुद्गल ( पृथ्वी आदि ) का धर्म हैं, बाह्य न्द्रिय से ग्राह्य हैं, अत: वह गौरवर्णादि अन्तर्मुख एवं इन्द्रियाजन्य अहमाकार प्रतीति का विषय नहीं हो सकता। [अस्थिर देह स्थैर्यबुद्धि का विषय नहीं ] दूसरी बात यह है कि गौरवर्णादि रूप का आश्रय देह तो प्रतिक्षण नाशवंत होने का आप मानते हैं, तो अस्थिर देह स्थिरवस्तु के अवगाहकरूप में अनुभवारूढ निम्नोक्त बुद्धि का विषय बने यह अयुक्त है, वह बुद्धि इस प्रकार है-'मैंने ही पहले मित्र को देखा था और वही मैं आज पाँचवर्ष के बाद उसका स्पर्श करता हूं' / यदि फिर भी देह को ही आप इस बुद्धि का विषय मानेंगे तब जिस बुद्धि में रूपविषयता का अनुभव करते हैं उस बुद्धि को रसविषयक माना जा सकेगा। अहंप्रतीति का विषय