________________ 352 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न चात्र बौद्धमतानुसारिणैतद् वक्तु युज्यते - 'अहंप्रत्ययस्य सविकल्पकत्वेनाऽप्रत्यक्षत्वेन न तद्ग्राह्यत्वमात्मन' इति;-सविकल्पकस्यैव प्रत्यक्षस्य प्रमाणत्वेन व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् / प्रत्यक्षविषयत्वेऽपि विप्रतिपत्तिसम्भवेऽनुमानस्यावतारः। न च 'सिद्धे प्रात्मन एकत्वे तत्प्रतिबद्धोऽनुसंधानप्रत्ययः सिध्यति, तत्सिद्धौ च ततस्तस्यैकत्वम्' इतीतरेतराश्रयदोषावतारः, 'य एवाहं घटमद्राक्षं स एवेदानों तं स्पृशामि' इतिप्रत्ययात् प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्वरूपादात्मनः एकत्वसिद्धेः / ___न चात्रैतत् प्रेर्यम्-"दृष्टरूपमात्मनः स्प्रष्टरूपानुप्रवेशेन प्रतिभासते आहोस्विदननुप्रवेशेन ? यद्यनुप्रवेशेन तदा दृष्टरूपस्य स्प्रष्टरूपेऽनुप्रवेशात स्प्रष्टरूपतैवेति न दृष्टरूपता, तथा च 'अहं दृष्टा स्पृशामि' इति कुतः उभयावभासोल्लेख्येक प्रत्यभिज्ञानं यतस्तदेकत्वसिद्धिः ? अथाननुप्रवेशेन तदा दर्शनस्पर्शनावभासयोर्भेदात कुत एक प्रत्यभिज्ञानम् ? नहि प्रतिभासभेदे सत्यप्येकत्वम् , अन्यथा घटपटप्रतिभासयोरपि तत् स्यात् / अथ प्रतिभासस्यैवात्र भेदो न पुनस्तद्विषयस्यात्मनः / कुतः पुनस्तस्याभेदः ? न तावत् प्रतिभासाऽभेदात् तस्य भिन्नत्वेन व्यवस्थापितत्वात् / नापि स्वत:, स्वतोऽद्यापि विवादविषयत्वात् / अथ दर्शन-स्पर्शनावस्थाभेदेऽपि चिद्रूपस्य तदवस्थातुरभिन्नत्वान्नायं दोषः, तदप्य सुखादिपरिणामभिन्न आत्मा को माने तो कोई बाधक भी उपलब्ध नहीं है जिससे कि बाधज्ञानविषयभूत हो जाने से उस प्रतीति को भ्रम कहा जा सके। वह प्रतीति स्खलद्रूप भी नहीं है, जैसे गोवाहक में गोबुद्धि होने पर गोवाहक में गोत्व का योग स्खलित होने से यह बुद्धि स्खलद्रूप वाली होती है, ऐसा 'अहं सुखी' इस बुद्धि में नहीं है, अत: गोवाहक में गोबुद्धि उपचरितविषयक होने पर भी / 'अहंप्रतीति' को उपचरितविषयक नहीं कह सकते / इस रीति से अबाधित एवं अस्खलद्रूपवाली अहंप्रतीति का ग्राह्य आत्मा ही सिद्ध होता है, अत: आत्मा की असिद्धि नहीं है / , . पूर्वपक्षी की अवशिष्ट बातें निःसार होने से प्रतिकार योग्य नहीं है, अतः उपेक्षणीय ही हैं / [बौद्धमत से प्रत्यभिज्ञा में आपादित दोषों का प्रतिकार ] [बौद्धमत में केवल निर्विकल्प प्रत्यक्ष ही प्रमाणभूत है, उसका विषय न होने से आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है अतः बौद्धवादी अब उपस्थित हो रहा है] यहां बौद्धमतानुयायीओं का यह कहना युक्त नहीं है कि "आत्मा की अहमाकार प्रतीति तो सविकल्पज्ञानरूप है और वह तो अप्रमाण है यानी प्रत्यक्षप्रमाणरूप नहीं है अतः प्रत्यक्ष के ग्राह्यरूप में आत्मसिद्धि नहीं हो सकती"-ऐसा न कह सकने का हेतु यह है कि अग्रिम व्याख्या ग्रन्थ में 'सविकल्प ही प्रत्यक्ष का प्रमाणभूत है' इस पक्ष की स्थापना की जाने वाली है / यद्यपि सविकल्पज्ञान प्रत्यक्षरूप यानी स्वयंसंविदित ही है, यह भी प्रत्यक्ष का ही विषय है फिर भी उसके विषय में विवाद सम्भव होने से वहां अनुमान का अवतार भी सावकाश है। स्थिर आत्मसिद्धि के विषय में जो प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप से दिखायी गयी है उसके ऊपर बौद्ध जो यह अन्योन्याश्रय दोष का आरोपण करते हैं कि-'पूर्वप्रतीति का विषय और वर्तमान प्रतीति का विषय एक आत्मा सिद्ध हो तभी अनुसन्ध यानी प्रत्यभिज्ञा को एकत्वप्रतिबद्ध माना जा सकता है, और प्रत्यभिज्ञा में एकत्वविषयकता सिद्ध हाने पर प्रतीतिद्वय के विषयरूप में एक आत्मा की सिद्धि होगी'- यह दोष मिथ्या है क्योंकि 'जो मैंने पहले घट को देखा था वही मैं अब उसको छू रहा हूं' इस प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षरूप बुद्धि में 'वही मैं ऐसे उल्लेख से पूर्वोत्तरप्रतीति का विषयभूत एक ही आत्मा सिद्ध होता है /