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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकतृ त्वे पूर्वपक्षः "अन्वयव्यतिरेकिपूर्वककेवलव्यतिरेकिसंज्ञम् / यथा गन्धाधुपलब्ध्या तत्साधनकरणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधे करणविशेषसिद्धिः केवलव्यतिरेकिनिमित्ता, तथेहापि कार्यत्वात् बुद्धिमत्कारणमात्रप्रसिद्धौ प्रसक्तप्रतिषेधात् कारणविशेषसिद्धि : केवलव्यतिरेकिनिमित्ता। तथाहि-कार्यत्वाद् बुद्धिमत्कारणमात्रसिद्धौ प्रसक्तानां कृत्रिमज्ञान-शरीरसंबद्धत्वादीनां धर्माणां प्रमाणान्तरेण बाधोपपत्तौ विशिष्टबुद्धिमत्कारणसिद्धिय॑तिरेकिबलात्" इति केचित् / - अन्ये मन्यन्ते-"यत्रान्वयव्यतिरेकिणो हेतोर्न विशेषसिद्धिः तत्र तत्पूर्वकात केवलव्यतिरेकिंणो विशेषसिद्धिर्भवत यथा घ्राणादिष अत्रत पर्वस्माद्धतोविशेषसिद्धौ न हेत्वन्तरपरिकल्पना / यथा धमस्य वह्निनाऽन्वय-व्यतिरेकसिद्धौ ‘अत्र देशे वह्निः' इति पक्षधर्मत्वबलात् प्रतिपत्तिः, नान्वयाद् व्यतिरेकाद्वा, तयोातद्देशावच्छिन्नेन वह्निनाऽसम्भवात्-यद्यपि व्याप्तिक ले सकलाक्षेपेण तद्देशस्याप्याक्षेपोऽन्यथात्र व्याप्तेरसंभवात्-तथापि व्याप्तिग्रहणवेलायां सामान्यरूपतया तदाक्षेपः न विशेषरूपेण, इति विशेषावगमो नान्वय-व्यतिरेकनिमित्तः अपि तु पक्षधर्मत्वकृतः / अत एव प्रत्युत्पन्नकारगजन्यां स्मृतिमनुमानमाहुः। प्रत्युत्पन्नं च कारणं पक्षधर्मत्वमेव-तथा कार्यत्वादेबुद्धिमत्कारणमात्रेण व्याप्तिसिद्धावपि कारणविशेषप्रतिपत्तिः पक्षधर्मत्वसामर्थ्यात् / य इत्थंभूतस्य पृथिव्यादेः कर्ता, नियमेनासावकृत्रिमज्ञानसम्बन्धी शरीररहितः सर्वज्ञः एकः-इति / एवं यदा पक्षधर्म वबलाद् विशेषसिद्धिः तदा न विशेषविरुद्धादीनामवकाशः। [ ईश्वर के देहाभावादि विशेषों की सिद्धि में प्रमाण ] धर्मी ईश्वर की कार्यत्वहेतु से सिद्धि होने के बाद उत्तरकाल में उसके अशरीरीत्वादि विशेषों की सिद्धि अन्य प्रमाण से प्रदर्शित की जाती है, पूर्वकथित कार्यत्व हेतु के बल से ही हमें उनकी सिद्धि अभिनेत नहीं होती / वह अन्य प्रमाण आगम भी हो सकता है और धर्मीसाधक हेतु से भिन्न दूसरा हेतु भी हो सकता है / यहाँ दो-तीन पक्ष हैं वे क्रमशः दिखाये जाते हैं (1) दूसरे हेतुरूप उस अन्य प्रमाण को संज्ञा है-'अन्वयव्यतिरेकिपूर्वक केवलव्यतिरेकी' / * -- उदा० गन्धादि-उपलब्धिरूप अन्वयव्यतिरेकी हेतु से पहले उसके साधनभूत करण ( यानी सामान्यतः इन्द्रिय) की सिद्धि होती है / तदनन्तर पांचों नेत्रादि इन्द्रियों में क्रमशः गन्धग्राहकत्व की सम्भावना की जाती है, जिस में वह नहीं घट सकता उनमें तत्तद् हेतु से उस सम्भावना का निषेध किया जाता है और जिसमें (घ्राण में) सम्भावना करने पर कोई निषेधक हेतु प्राप्त नहीं होता उस कारणविशेष द्रय की गन्धग्राहकत्व रूप से प्रतिष्ठा की जाती है, यहाँ हेतु केवल व्यतिरेकी ही होता है। प्रस्तुत में भी, अन्वयव्यतिरेकी कार्यत्व हेतु से बुद्धिमत्कारणमात्र की सिद्धि हो जाने पर सम्भवित विशेषों का बाधादि से निराकरण करने पर कारणभूत सर्वज्ञादि कर्तृ विशेष की सिद्धि केवलव्यतिरेकी हेतु से होती है / जैसे देखिये, कार्यत्व हेतु से तो पहले मात्र बुद्धिमत्कारण (कर्ता) ही सिद्ध होगा। तदनन्तर उस कर्ता में अनित्यज्ञानवत्ता, शरीरसंबन्धिता आदि धर्मों की सम्भावना प्रसक्त होगी, किन्तु तब अन्य प्रमाणों से वहाँ बाध भी उपस्थित होगा, अतः केवलव्यतिरेको हेतु के बल से नित्यज्ञानादिविशिष्ट बुद्धिमत्कारण की सिद्धि फलित होगी। यह विद्वानों के एक वर्ग का अभिप्राय है / [पक्षधर्मता के बल से विशेष सिद्धि ] (2) दूसरे वर्ग का कहना है-जहाँ धर्मिगत विशेष की सिद्धि अवय-व्यतिरेकी हेतु से शक्य
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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