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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 15 इतश्चैतददूषणम्-पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्वसिद्धस्यैव साध्यस्य a किं विशेषः साध्यते ? b उत पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते ? न तावत् पूर्वो विकल्पः, यदि नाम तत्रापरेण हेतुना विशेषाधानं कृतं किं तावता पूर्वस्य हेतोः साध्यसिद्धिविधातः ? यथा कृतकत्वेन शब्दस्यानित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिस्तद्वदत्रापि / b अथोत्तरो विकल्पस्तथापि स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धो व्याप्त्यभावप्रदर्शनेन क्रियते व्याप्त्यभावश्च हेतुरूपाणामन्यतमाभावेन / न च धर्मिविशेषविपर्ययोद्धावनेन कस्यचिदपि रूपस्याभावः कथ्यते / न च हेतुरूपाभावाऽसिद्धावगमकत्वम् / तन्न विशेषविरुद्धता। विशेषास्तु धर्मिणः स्वरूपसिद्धावुत्तरकालं प्रमाणान्तरप्रतिपाद्या न तु पूर्वहेतुबलादभ्युपगम्यन्ते / तच्च प्रमाणान्तरमागमः पूर्वहेतोर्हेत्वन्तरं च / तच्चआदि स्वरूप वैपरीत्य की सिद्धि की जाय तो भी हेतु को साध्यविरोधी नहीं कहा जा सकता / साध्य के वैपरीत्य को सिद्ध करने वाला हेतु ही साध्यविरोधि हो सकता है / कार्यत्व हेतु से हमें केवल बुद्धिमत्कारणत्वरूप साध्य की सिद्धि ही अभिप्रेत है, उसकी असर्वज्ञता या सर्वज्ञता आदि की सिद्धि कार्यत्व हेतु से अभिप्रेत नहीं है। तदुपरांत, विशेष विरुद्धादि किस रीति से दूषणरूप नहीं है इसका नि भलीभांति "सिद्धान्तमभ्युपेत्य तद्विरोधी विरुद्धः" इस न्यायसूत्र की तात्पर्य टीका में किया गया है / सूत्र का अर्थ यह है कि अभ्युपगत सिद्धान्त का यानी प्रतिज्ञात अर्थ का विरोधी हो वही हेतु विरुद्ध है / आशय यह है कि यहाँ प्रतिज्ञात अर्थ केवल बुद्धिमत्पूर्वकत्व ही है, कार्यत्व हेतु का विरोध नहीं होने से विशेषविरुद्ध दोष को अवसर नहीं है। जिस धर्मविशेष या धमि विशेष के साथ हेतु का विरोध दिखाया जाता है वह विशेष यहाँ प्रतिज्ञात अर्थरूप नहीं है, वह तो केवल प्रतिज्ञात अथ का आनुषंगिक अर्थ है। [विशेषविरुद्धता दूषण क्यों नहीं ? उत्तर ] विशेषविरुद्धता दूषण नहीं यह बात विकल्पद्वय के विश्लेष से भी समझ सकते हैं। a पूर्वोक्त हेतु से साध्यसिद्धि दिखाने के बाद विशेषविरुद्धता साधक हेतु क्या पूर्वसिद्ध साध्य के अन्य विशेष को सिद्ध करेगा ? या पूर्व हेतु से होने वालो साध्यसिद्धि का प्रतिबन्ध करेगा ?.a प्रथम विकल्प से कोई इष्टविधात नहीं है, क्योंकि यदि दूसरे हेतु से पूर्वसिद्ध साध्य में कोई विशेषाधान किया जाय तो इतने मात्र से पूर्वकथित हेतु से साध्यसिद्धि होने में कोई विघ्न की उपस्थिति नहीं हो जाती। जैसेः शब्द में कृतकत्व हेतु से अनित्यत्व सिद्ध होने के बाद अन्य किसी हेतु से शब्द में गुणत्व की सिद्धि की जाय तो इससे कृतकत्वहेतुक अनित्यतासिद्धि में कोई विघ्न नहीं आता / इसी तरह प्रस्तुत में भी है। b दूसरा विकल्प पूर्वहेतु से की जाने वाली साध्य सिद्धि में प्रतिबन्ध लगाना, यहाँ भी साध्यसिद्धि का प्रतिबन्ध तब तक नहीं हो सकता जब तक 'कार्यत्वहेतु में कर्तृत्व के साथ व्याप्ति नहीं है' ऐसा न दिखाया जाय / व्याप्ति का अभाव भी, हेतु के पांच रूपों में से किसी एक के अभाव को दिखाने से ही दिखाया जा सकता है / केवल पूर्वहेतु से सिद्ध किये जाने वाले कर्तृधर्मी के, किसी एक विशेष अशरीरीत्व का विपर्यय दिखा देने मात्र से, कार्यत्व हेतु के पक्षवृत्तित्वादि किसी भी एकरूप का विरह फलित नहीं हो सकता / जब तक हेतु के किसी एक-दो रूपों का अभाव प्रदर्शित न किया जाय तब तक वह हेतु साध्य का अबोधक नहीं कहा जा सकता। इस रीति से विशेषविरुद्धता कहने पर भी कोई दोष नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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