________________ प्रथमखण्ड का० १-प्रामाण्यवाद 39 यदप्यभ्यधायि 'न च तृतीयं कार्यमस्ति' [ पृ० 13-60 4 ] इति; तदप्यसम्यक् , तृतीयकार्याभावेऽपि पूर्वोक्तन्यायेन प्रामाण्यस्योत्पत्तौ परतः सिद्धत्वात् / यच्च 'अपि चार्थतथाभावप्रकाशनलक्षणं प्र.माण्यं....' [ पृ० 1 -पं० 6 ] इत्यादि....'विश्वमेकं स्यादिति वचः परिप्लवेत' [ पृ० 14. पं०३ ] इतिपर्यवसानमभिहितम् , तदपि अविदितपराभिप्रायेण / यतो न परस्यायमभ्युपगमः'विज्ञानस्य चक्षुरादिसामग्रीतः उत्पत्तावप्यर्थतथाभावप्रकाशनलक्षणस्य प्रामाण्यस्य नैर्मल्यादिसामग्र्यन्तरात् पश्चादुत्पत्तिः', किंतु, गुणवच्चक्षुरादिसामग्रीतः उपजायमानं विज्ञानमागृहितप्रामाण्यस्वरूपमेवोपजायत इति / ज्ञानवत् तदव्यतिरिक्तस्वभावं प्रामाण्यमपि परत इति गुणवच्चक्षुरादिसामग्र्यपेक्षत्वात् उत्पत्तौ प्रामाण्यस्यानपेक्षत्वलक्षणस्वभाव हेतुरसिद्धोऽनपेक्षत्वस्वरूप इति 'तस्माद्यत एव गुणविकलसामग्रीलक्षणात्' [ पृ० 14-50 4 ] इत्याद्ययुक्तमभिहितम् / 'अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यं, शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति' इत्यादि [पृ० 16-1] यदभिधानं तदप्यसमीचीनम् / एवमभिधानेऽयथावस्थितार्थपरिच्छेदशक्त रप्यप्रामाण्यरूपाया असत्याः केनचित् कर्तुमशक्तेः तदपि स्वतः स्यात् / कर लेता है तब कोई मित्र उसे पूछता है 'आपके नेत्र कैसे हैं ?' तब वह उत्तर में कहता है 'पहले मेरे नेत्र दूषित थे, अब वे गुण संपन्न हो गये हैं।' इसलिये यह कहना शक्य नहीं है कि-'लोग केवल दोषों के अभाव को ही निर्मलता कहते हैं क्योंकि ऐसा कहने पर तो तिमिर आदि दोषों को भी गुणों के अभावरूप में कहना होगा। सारांश, लोक दृष्टि में दोष के समान गुण भी स्वतंत्र रूप से प्रसिद्ध हैं, फिर भी गुणों की उपेक्षा करके प्रामाण्य को आप स्वत: मानते हैं, तो दोषों की उपेक्षा करके अप्रामाण्य को भी स्वतः मानना होगा। इसके अतिरिक्त आपने जो कहा है-'यथार्थोपलब्धि व अयथार्थ उपलब्धि को छोड कर ज्ञान का तीसरा कोई कार्य नहीं है'-वह भी समीचीन नहीं है / क्योंकि तीसरा कार्य भले न हो तो भी पहले कही गयी युक्ति के अनुसार प्रामाण्य उत्पत्ति में पर की अपेक्षा करता है यह सिद्ध हो चुका है। (यच्च ‘अपि....) तथा आपने 'वस्तु के यथास्थितभाव का प्रकाशनरूप प्रामाण्य'........यहां से लेकर 'समस्त संसार एक हो जायेगा-यह वचन खण्डित हो जायेगा'....यहां तक जो कहा है वह सब प्रतिवादी के अभिप्राय को बिना समझे ही कहा है। क्योंकि प्रतिवादी यह नहीं मानते कि चक्षु आदि सामग्री से ज्ञान पहले उत्पन्न होता है और उसमें वस्तु के यथार्थस्वरूप प्रकाशनात्मक प्रामाण्य, निर्मलता आदि अन्य सामग्री से बाद में उत्पन्न होता है। प्रतिवादी तो यह मानते हैं कि गुणसहितचक्षु आदि सामग्री से जब ज्ञान उत्पन्न होता है तब आग्रहीत यानी उपजात प्रामाण्यस्वरूप वाला ही उत्पन्न होता है। [प्रामाण्यरूप पक्ष में अनपेक्षाव हेतु की असिद्धि ] फलतः जैसे ज्ञान उत्पत्ति में परापेक्ष है उसी प्रकार ज्ञान से अभिन्न स्वभाव वाला प्रामाण्य भी परापेक्ष सिद्ध हुआ। इस प्रकार प्रामाप्य उत्पत्ति में गुणयुक्त चक्षु आदि सामग्री की अपेक्षा रखता है इसलिये आपने जो 'अपेक्षा रहित होने से' इसको हेतुरूप में कहा था वह आपका अनपेक्षत्व यानी 'निरपेक्षभाव' रूप स्वभाव हेतु असिद्ध हुआ। इसलिये आपने जो 'गुण से अतिरिक्त जिस