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________________ 38 सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 यदपि 'अथ कार्येण यथार्थोपलब्ध्यात्मकेन तेषामधिगमः' [ पृ० 11507 ] इत्यादि 'यतो न लोकः प्रायशो विपर्ययज्ञानादुत्पादकं कारणमात्रमनुमिनोति किंतु सम्यग्ज्ञानात्' [ पृ० 13 पं० 3 ] इत्यन्तमभ्यधायि; तदप्यसंगतम् , यतो यदि लोकव्यवहारसमाश्रयणेन प्रामाण्याऽप्रामाण्ये व्यवस्थाप्येते तदाऽप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमपि परतो व्यवस्थापनीयम् / तथाहि-लोको यथा मिथ्याज्ञानं दोषवच्चक्षुरादिप्रभवमभिदधाति तथा सम्यग्ज्ञानमपि गुणवच्चक्षुरादिसमुत्थमिति तदभिप्रायादप्रामाण्यवत् प्रामाण्यमप्युत्पत्तौ परतः कथं न स्यात् ? तथाहि-तिमिरादिदोषावष्टब्धचक्षुष्को विशिष्टौषधोपयोगावाप्ताक्षिनर्मल्यगुणः केनचित् सुहृदा कीदृक्षे भवतो लोचने वर्त्तते' इति पृष्टः सन् प्राह-'प्राक् सदोषे अभूतामिदानीं समासादितगुणे संजाते' इति / न च नैर्मल्यं दोषाभावमेव लोको व्यपदिशति इति शक्यमभिधातुम, तिमिरादेरपि गृणाभावरूपत्वव्यपदेशप्राप्तेः, तथा च अप्रामाण्यमपि प्रामाण्यवत् स्वतः स्यात् / में भी समानरूप से लागू होता है। समानता इस प्रकार:-'जिन दोषों को आप अतीन्द्रिय नेत्रादि . इन्द्रिय में आश्रित मानते हैं वे प्रत्यक्ष से प्रतीत होते हैं या अनुमान से ? प्रत्यक्ष से उनकी प्रतीति नहीं हो सकती क्योंकि इन्द्रिय अतीन्द्रिय होने से उनमें रहने वाले दोष भी अतीन्द्रिय हैं इसलिये उनमें प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। अनुमान से भी इन दोषों का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि अनुमान उस लिंग से उत्पन्न होता है जिसका साध्य के साथ व्याप्ति संबंध ज्ञात होता है, किन्तु प्रस्तुत विषय में ऐसा कोई प्रत्यक्ष या अनुमान संभवित नहीं है जो हेतुगत व्याप्ति का ग्राहक हो सके / एवं प्रत्यक्ष व अनुमान में अन्तर्भाव न हो सके ऐसा कोई अन्य प्रमाण नहीं है जिससे भी हेतुगत व्याप्ति का ज्ञान तथा इन्द्रियों के अतीन्द्रिय दोषों का ज्ञान हो सके ) ऐसा कोई अतिरिक्त तीसरा प्रमाण नहीं है यह बात आगे स्पष्ट की जाने वाली है / '- ( इत्यादि सर्वमप्रामाण्य० ) इत्यादि जो कुछ प्रामाण्य के स्वतस्त्व पक्ष में कारणरूप से भासमान इन्द्रियगत गुणों की अकिंचित्करता सिद्ध करने के लिए कहा है वह सब अप्रामाण्य की उत्पत्ति में कारणभूत लोचनादि आश्रित दोषों के विषय में भी समान है। इस प्रकार दोष भी असत् सिद्ध हो जाने से अप्रामाण्य एवं दोष के बीच अन्वयव्यतिरेक सिद्ध नहीं होंगे। इसलिए अप्रामाण्य भी उत्पत्ति में स्वतः हो जाएगा। [ लोकव्यवहार में सम्यग्ज्ञान को गुणप्रयुक्त माना जाता है ] इसके अतिरिक्त, आपने 'यदि यथार्थज्ञान रूप कार्य से गुण का ज्ञान होता है'....यहाँ से लेकर 'लोग प्रायः उत्पत्ति के कारण का अनुमान भ्रान्त ज्ञान से नहीं किन्तु यथार्थ ज्ञान से करते हैं' यहाँ तक जो कहा है वह भी युक्त नहीं है / इसका कारण यह है कि-लोकव्यवहार का आश्रय लेकर यदि प्रामाण्य और अप्रामाण्य की व्यवस्था की जाय तो अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य की प्रतिष्ठा भी पर की अपेक्षा से करनी चाहिये / यह इस प्रकार-लोग तो जिस प्रकार मिथ्या ज्ञान को दोषयुक्त चक्षु आदि से उत्पन्न होने वाला कहते हैं इस प्रकार सम्यग् ज्ञान को भी गुणयुक्त चक्षु आदि से उत्पन्न कहते हैं / इसलिये लोगों के अभिप्राय के अनुसार अप्रामाण्य के समान ही प्रामाण्य भी उत्पत्ति में परतः यानी परसापेक्ष क्यों नहीं सिद्ध होगा? इसकी अधिक स्पष्टता इस प्रकार है-तिमिर आदि दोषों से युक्त नेत्रवाला मनुष्य किसी विशिष्ट औषध के उपयोग से नेत्रों में निर्मलता स्वरूप गुण को प्राप्त
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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