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________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद यदपि 'अत्यक्षाऽक्षाश्रितगुणसद्भावे प्रत्यक्षाऽप्रवृत्तेः तत्पूर्वकानुमानस्याऽपि तद्ग्राहकत्वेनाऽव्यापारात चक्षुरादिगतगुणानामसत्त्वात् तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वं प्रामाण्यस्योत्पत्तावयुक्तं' [ पृ०८ ] इत्युक्तम; तदसंगतम् , अप्रामाण्योत्पत्तावप्यस्य दोषस्य समानत्वात / तथाहि-"अतीन्द्रियलोचनाद्याश्रिता दोषाः कि प्रत्यक्षेण प्रतीयन्ते ? उतानुमानेन ? न तावत प्रत्यक्षेण, इन्द्रियादीनामतीन्द्रियत्वेन तद्गतदोषाणामप्यतीन्द्रियत्वे तेषु प्रत्यक्षस्याऽप्रवृत्तेः / नाप्यनुमानेन, अनुमानस्य गृहीतप्रतिबन्धलिंगप्रभवत्वाभ्युपगमात , लिंगप्रतिबन्धग्राहकस्य च प्रत्यक्षस्यानुमानस्य चात्र विषयेऽसम्भवात् , प्रमाणाऽन्तरस्य चात्रानन्तर्भूतस्याऽसत्त्वेन प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्"-इत्यादि सर्वमप्रामाण्योत्पत्तिकारणभूतेषु लोचनाद्याश्रितेषु दोषेष्वपि समानमिति तेषामप्यसत्त्वात् तदन्वयव्यतिरेकानुविधानस्याऽसिद्धत्वादप्रामाण्यमप्युत्पत्तौ स्वतः स्यात् / की उत्पत्ति का कोई हेतु न हो तो आकाश के समान उसके देश-काल आदि का नियम भी नहीं होना चाहिये। [ गुणवान् नेत्रादि के साथ प्रामाण्य का अन्वय-व्यतिरेक ] ( किंच गुणव०....) इसके अतिरिक्त, 'गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रिय होने पर विषय का यथार्थ प्रत्यक्ष देखा गया है, गुणयुक्त चक्षु आदि इन्द्रिय न होने पर यथार्थ प्रत्यक्ष नहीं देखा गया है।' इस प्रकार के अन्वंय-व्यतिरेक से यथार्थ प्रत्यक्ष यह गुणयुक्त इन्द्रिय हेतुक सिद्ध होता है अर्थात् यथार्थ प्रत्यक्ष व गुणयुक्त इन्द्रिय का हेतु-हेतुमद्भाव सिद्ध होता है / अन्य स्थान में भी जहाँ हेतु-हेतुमद्राव होता है वहां वह भी अन्वय और व्यतिरेक के अधीन ही होता है / अर्थात् जिन दोनों के बीच में पौवापर्यरूप से अन्वय-व्यतिरेक उपलब्ध होता है, तात्पर्य, 'एक के होने पर दूसरे का उत्पन्न होना और उसके न होने पर दूसरे का उत्पन्न न होना' ऐसी परिस्थिति मिलती है वहाँ उन दोनों के बीच में हेतु-हेतुमद्भाव अर्थात् कार्यकारणभाव होता है। अन्यथा, अन्वय-व्यतिरेक होने पर भी हेतु-हेतुमद्भाव न माना जाय तो वस्तु निर्हेतुक अर्थात् स्वतः सिद्ध हो जाएगी। फलतः मिथ्या प्रतीति व दोषयुक्त चक्ष आदि इन्द्रिय इन दोनों के बीच में अन्वय-व्यतिरेक होने पर मिथ्या प्रतीति को भी स्वतः मानना पडेगा। फलतः अप्रामाप्य भी स्वतः सिद्ध होगा। यह भी यदि मान लिया जायेगा तो यह जो आपका वचन है 'वस्तुत्वाद....०' इत्यादि, इसका व्याघात होगा। आशय यह है कि-"मिथ्या ज्ञान भी एक वस्तु है, वह दोषयुक्त कारणों से (भ्रम और संशय इन) दो प्रकार से उत्पन्न होता है।"-इस वचन का व्याघात हो जायेगा। [ गुणापलाप करने पर दोषापलाप की आपत्ति ] (यदपि 'अत्यक्षा०....) यह भी जो आप कह गये हैं-"इन्द्रियों में रहने वाले अतीन्द्रिय गुणों की सत्ता के विषय में प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति नहीं हो सकती और जब प्रत्यक्ष होना अशक्य है तब प्रत्यक्ष पूर्वक होने वाले अनुमान की भी इन्द्रियाश्रित अतीन्द्रियगुणों के ग्रहण में प्रवत्ति नहीं हो सकती। इसलिये प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से इन्द्रियों के गुणों का ज्ञान नहीं हो सकने के कारण इन्द्रिय के परपक्षमान्य गुण असत् हैं। इस लिये प्रामाण्य की उत्पत्ति व इन्द्रिय के गुण इन दोनों के बीच अन्वय-व्यतिरेक मानना युक्त नहीं है" यह पूरा कथन यूक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आपने प्रामाण्य की उत्पत्ति के विषय में जिस दोष का उद्भावन किया है वह दोष अप्रामाण्य की उत्पत्ति के विषय
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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