SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 303
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 270 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्योतिःशास्त्रादिकमज्ञानदोषादन्यथोपदिशन्त उपलभ्यन्ते, अन्ये समवगच्छन्तोऽपि दुष्टाभिप्रायतया, अन्ये वचनदोषादव्यक्तमन्यथा चेति। तथा श्रोतारोऽपि केचिद् मन्दबुद्धित्वदोषादुक्तमपि यथावन्नावधारयति / अन्ये विपर्यस्तबुद्धयः सम्यगुपदिष्टमप्यन्यथाऽवधारयन्ति / केचित् पुनः सम्यक् परिज्ञातमपि विस्मरन्तीत्येवमादिभिः कारणैः प्रतिपुरुषं हीयमानस्यैतावन्तं कालं यावदागमनमेव न स्याच्चिरोच्छिन्नत्वेन, आगच्छति च, तस्मादन्तराऽन्तरा विच्छिन्नः सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता केनचिदभिव्यक्तः इयन्तं कालं यावदागच्छतीत्यभ्युपगमनीयमिति नानुपदेशपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिः / नाप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां नष्ट-मुष्टयादिकं ज्ञात्वा तद्विषयवचनविशेषप्रवर्तनं कस्यचित् संभवति येनाऽनन्वय-व्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणाऽसिद्धिः स्यात् / यतो नान्वय-व्यतिरेकाभ्यां ग्रहोपरागौषघशक्त्यादयो ज्ञातुं शक्यन्ते, प्रावृट्समये शिलीन्ध्रो दववद् ग्रहोपरागादीनां दिक्-प्रमाण फलकालादिष नियमाभावात / द्रव्यशक्तिपरिज्ञानाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां यावन्ति जगात [ हेतु में अनुपदेशपूर्वकत्व विशेषण की उपपत्ति ] ऐसा कहना कि-"अतीन्द्रियार्थदर्शन न होने पर भी प्रमाणभूत वचन विशेष की उपदेश परम्परा चिरकाल से प्रवाहित होती रही है, अत: आपने जो हेतु में अनुपदेशपूर्वकत्व विशेषण लगाया है वह असिद्ध है"-उचित ही नहीं है / कारण, नष्ट-मुष्टि आदि पदार्थ के प्रतिपादक वचनविशेष को यदि उपदेश परम्परा जन्य मानेंगे तो काल अनादि होने से ऐसे वचन का मूलतः उच्छेद कब का हो चुका होता / क्योंकि वक्ता (उपदेशकों) का अज्ञान, अथवा उनकी प्रतारणबुद्धि एवं वचनप्रयोग में अकौशल इत्यादि दोषवृन्द, तथा श्रोताओं की मन्दबुद्धि अथवा विपरीतबुद्धि एवं ग्रहण करने के बाद विस्मरण हो जाना इत्यादि दोषों के कारण दिन प्रति दिन वचनों का ह्रास होता ही रहता है / जैसे कि-वर्तमानयुग में कितने ही ऐसे उपलब्ध हो रहे हैं जो ज्योतिषशास्त्र के समीचीन ज्ञान न होने के दोष से विपरीत उपदेश कर रहे हैं। कई ऐसे भी है जो ठीक तरह से जानते तो है फिर भी दूसरे को ठगने की बृद्धि से विपरीत उपदेश करते हैं। तो कई ऐसे भी है जो वचन दोष के कारण समझ में न आवे ऐसा अथवा तो विपरीत उपदेश करते हैं / यह तो वक्ता की बात हुयी, अब श्रोताओं में भी देखिये - [ आगमार्थ के अभिव्यंजक सर्वज्ञ की सत्ता सप्रयोजन ] श्रोतावर्ग भी ऐसा होता है कि कितने तो बुद्धिमंदता के दोष, से उपदिष्ट अर्थ का सम्यग् अवधारण ही नहीं करते / दूसरे कुछ ऐसे होते हैं-जो बुद्धि विपर्यास के कारण सच्चे उपदेश का भी विपरीत अवधारण कर बैठते हैं। कितने तो ठीक तरह से अवधारण करते हैं किन्तु कालान्तर में भूल जाते हैं।....इत्यादि उक्त प्रकार के कारणों से दिन-प्रतिदिन नयी नयी पिढी में जिन वचनों का ह्रास होता जा रहा है ऐसे आगम का इतने काल तक अनुवर्तन ही कैसे संभव है जब कि वह चिर अतीत में नष्ट हो जाने की पूरी संभावना है। देखा तो यह जाता है कि उपरोक्त स्थिति में भी आगमवचन का प्रवाह चालु है / अतः यह मानना चाहिये कि बीच बीच में उसका विच्छेद तो हुआ होगा किन्तु पुन: पुनः पदार्थों को साक्षात् करने के ज्ञान वाले सत्पुरुषों ने उसकी अभिव्यक्ति की होगी जिससे कि वह इतने काल तक प्रवाहित होता आया है / इस प्रकार वचनविशेष में अनुपदेशपूर्वकत्वरूप विशेषण की भी असिद्धि नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy