________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेयविमर्श: 139 कुतः पुनस्तत्र पुरुषाभावः निश्चितः ? 'अन्यतः प्रमाणादिति चेत् ? तदेवोच्यताम् , किमर्थापत्त्या ? 'अर्थापत्तितश्चेत् ? न, इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात् / तथाहि-प्रर्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धावप्रामाण्याऽ[भाव सिद्धिः, एतत्सिद्धौ चार्थापत्तितः पुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् / चक्रकचोद्य 'चाऽत्रापि-तथाहि, यद्यप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदेऽपौरुषेयत्वं कल्पयति, प्रागमान्तरेऽप्यसो धर्मस्तत् कि न कल्पयति ? तत्र पुरुषदोषसम्भवादसौ धर्मो मिथ्या, तेन तत्र तन्न कल्पयति, वेदे कुत: पुरुषाभावः ? अर्थापत्तश्चेत् , तदागमान्तरे स स्याद् , इत्यादि तदेवावर्तते इति चक्रकानुपरमः। ____ नाप्यतीन्द्रियार्थप्रतिपादनलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदे पुरुषाभावं कल्पयति, आगमान्तरेऽपि समानत्वात् / न चाऽप्रामाण्याभावे पुरुषाभावः सिध्यति, कार्याभावस्य कारणाभावं प्रति व्यभिचारित्वे [ अर्थापत्ति से अपौरुषेयत्व की असिद्धि ] अर्थापत्ति प्रमाण से भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है / कारण, वेद में कोई ऐसा धर्म नहीं है जो वेद अपौरुषेय न माने तो न घट सके / अपौरुषेयवादः-अप्रामाण्याभाव यह ऐसा धर्म है जो वेद को अपौरुषेय न मानने पर नहीं घट सकता, इसलिये वह अपौरुषेयत्व की कल्पना करवाता है। उत्तरपक्षी:-यह . गलत बात है क्योंकि अन्य बौद्धादि आगम में भी अप्रामाण्याभावरूप धर्म संभवित होने से अन्य आगम को भी अपौरुषेय मानना पड़ेगा। अन्य आगम में अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या नहीं मान सकते, अन्यथा वेद में भी अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या मानना पडेगा। अपौरुषेयवादीः-अन्य आगमों में पुरुष को कर्ता माना है / पुरुष तो सब अपने अपने आगमों में सरागी होने से उन पुरुषों के दोषों से उनके आगमों में अप्रामाण्य का जन्म संभव होने से वहाँ अप्रामाण्याभावरूप धर्म वास्तव में सत्य नहीं है। जब कि वेद का अप्रामाण्यापादकदोषयुक्त कोई कर्ता पुरुष न होने से उसमें अप्रामाण्याभावस्वरूप धर्म सत्य है। . [पुरुषाभावनिश्चय में कोई प्रमाण नहीं ] उत्तरपक्षीः वेद में पुरुष का अभाव कैसे निश्चित किया ? यदि दूसरे किसी प्रमाण से वेद में पुरुष के अभाव का निश्चय किया है तो उस प्रमाण का ही उपन्यास करो, अर्थापत्ति की क्या जरूर? अर्थापत्ति से यदि उसका निर्णय मानेंगे तो इतरेतराश्रय दोष होगा जैसे, अर्थापत्ति से पुरुषाभाव सिद्ध होने पर वेद में अप्रामाण्याभाव सिद्ध होगा और वह सिद्ध होने पर अर्थापत्ति से पुरुषाभाव सिद्ध करेगा। इस प्रकार स्पष्ट अन्योन्याश्रय दोष है / चक्रक दोष का भी यहाँ भय होगा-जैसे, अगर अप्रामाण्य अभावरूप धर्म अनुपपन्न हो कर वेद में पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा तो अन्य आगम में भी वह धर्म पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा? इस प्रश्न के उतर में आपको कहना पड़ेगा कि अन्यत्र पुरुष दोष का सम्भव होने से अप्रामाण्याभावरूप धर्म मिथ्या हो गया इसलिये अन्य आगम में अप्रामाण्याभावरूप धर्म पुरुषाभाव की कल्पना नहीं करायेगा / तो इस पर पुनः यह प्रश्न आयेगा-वेद में पुरुषाभाव कैसे निश्चित किया ? तो इसके उत्तर में आप अपत्ति को प्रस्तुत करेंगे, तब फिर से यही बात आयेगी कि अन्यागम में भी अर्थापत्ति से पुरुषाभाव का निश्चय हो जायगा इत्यादि वही का वही चक्र घुमता रहेगा उसका अन्त नहीं आयेगा।