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________________ 138 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 [ ऋग्वेद अष्ट 0 8, मं० 10, सू० 121] "तस्यैव चैतानि निःश्वसितानि" [ बृह० उ० अ० 2, ब्रा०४, सू० 10 ] “याज्ञवल्क्य इति होवाच" [ बृह० उ० अ०२, बा• 4, सू०१ ], तन्न शब्दादपि तत्सिद्धिः / नाप्युपमानात तत्सिद्धिः / यदि हि चोदनासदृशं वाक्यमपौरुषेयत्वेन किंचित् सिद्धं स्यात् तदा तत्सादृश्योपमानेन वेदस्यापौरुषेयत्वमुपमानात् सिद्धं स्यात्, न च तत्सिद्धम्, इत्युपमानादपि न तत्सिद्धिः। नाप्यर्थापत्तेः / अपौरुषेयत्वव्यतिरेकेणानुपपद्यमानस्य वेदे कस्यचिद्धर्मस्याभावात् / नाऽप्रमाण्याभावलक्षणो धर्मोऽनुपपद्यमानो वेदस्याऽपौरुषेयत्वं परिकल्पयति, प्रागमान्तरेऽपि तस्य धर्मस्य भावादपौरुषेयत्वं स्यात् / न चासो तत्र मिथ्या, वेदेऽपि तन्मिथ्यात्वप्रसंगात् / अथागमान्तरे पुरुषस्य कर्तु रभ्युपगमात् पुरुषाणां च सर्वेषामपि प्रागमादिषु रक्तत्वात् तद्वेष [ ? दोष ]जनितस्याऽ-प्रामाण्यस्य तत्र संभवाद् नाऽप्रामा याभावलक्षणो धर्मस्तत्र सत्यः, वेदे त्वप्रामाण्यजनकदोषास्पदस्य पुरुषस्य कर्तु रभावादप्रामाण्याभावलक्षणो धर्मः सत्यः। यानी वेदकरणसमर्थपुरुषविशिष्ट अतीतादि काल का अभाव जब सिद्ध नहीं है तो वेदकरणासमर्थपुरुषविशिष्ट अतीतादि काल में कालत्व हेतु से वेद रचयितापूरुषाभाव को सिद्ध करने में सिद्ध साध्यता दोष अनिवार्य है। [ अपौरुषेयत्वसाधक कोई शब्दप्रमाण नहीं है ] शब्दप्रमाण से भी अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि यहाँ अन्योन्याश्रय दोष बैठा हैशब्द प्रामाण्य सिद्ध होने पर वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध होगा और अपौरुषेयत्व सिद्ध होने पर तत्प्रतिपादक शब्द का प्रामाण्य सिद्ध होगा / दूसरी बात यह है कि "वेद अपौरुषेय है" ऐसा कोई वेदवचन भी नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि आप वेद में भी जो विधिवाक्य हैं केवल उन्हीं को प्रमाण मानते हैं, अनुवाद परक वाक्यों को प्रमाण नहीं मानते / यदि उनको भी प्रमाण मान ले तब तो वेद पौरुषेय सिद्ध होंगे / जैसे कि- वेद कर्ता के सूचक अनेक वचन उपलब्ध होते हैं 1- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे / 2- तस्यैव चैतानि नि.श्वसितानि / 3- याज्ञवल्क्य इतिहोवाच / इन वाक्यों से हिरण्यगर्भ और याज्ञवल्क्य की वेदकर्तृता स्पष्ट सूचित हो रही है / निष्कर्षः-शब्द प्रमाण से वेद का अपौरुषेयत्व सिद्ध नहीं है। ___ [उपमान से अपौरुषेयत्व की असिद्धि ] उपमान प्रमाण से भी अपौरुषेयत्व की सिद्धि दूर है / प्रेरणावाक्य को अपौरुषेय सिद्ध करने के लिये उनके जैसा अन्य कोई वाक्य अपौरुषेय मानना चाहिये जिसके सादृश्य रूप उपमान से प्रेरणावाक्य की अपौरुषेयता सिद्ध की जाय / किन्तु ऐसा कोई भी अन्य वाक्य मीमांसक को अपौरुषेय रूप में स्वीकार्य ही नहीं है - सिद्ध भी नहीं है / इस लिये उपमान प्रमाण से भी उसकी सिद्धि नहीं है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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