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________________ 140 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नान्यथानुपपन्नत्वाऽसंभवात् / अप्रतिबद्धाऽसमर्थस्य पुरुषस्याभावसिद्धावपि न सर्वथा पुरुषाभावसिद्धिः, पुरुषमात्रस्यापि[ ?स्याऽ ]निराकरणात् / इष्टसिद्धिश्च अप्रामाण्यकरणस्य तत्कर्तृत्वेनास्माकमप्यनिष्टत्वात् / नापि प्रामाण्यधर्मोऽन्यथानुपपद्यमानो वेदे पुरुषाभावं साधयति, आगमान्तरेऽपि तुल्यत्वात् / शेषमत्र चितितमिति न पुनरुच्यते / [शब्दनित्यत्वसिद्धिपूर्वपक्षः ] 'परार्थवाक्योच्चारणान्यथाऽनुपपत्तेस्तत्प्रतिपत्ति'रिति चेत् ? अयमर्थः-स्वार्थेनावगतसंबंधः शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति, अन्यथाऽगृहीतसंकेतस्यापि पुसस्ततो वाच्यार्थप्रतिपत्तिः स्यात् / स च सबधावगमः प्रमाणत्रयसंपाद्यः / तथाहि-यदैको वृद्धोऽन्यस्मै प्रतिपन्नसंगतये प्रतिपादयति'देवदत्त ! गामभ्याज एनां शुक्लां दण्डेन' इति-तदा पार्श्वस्थितोऽव्युत्पन्नसंकेतः शब्दाथी प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते, श्रोतुश्च तद्विषयक्षेपणादिचेष्टादर्शनाद् अनुमानतो गवादिविषयां प्रतिपत्तिमवगच्छति, तत्प्रतीत्यन्यथाऽनुपपत्त्या शब्दस्य च तत्र वाचिका शक्तिं स एव परिकल्पयति / स च प्रमाणत्रयसंपाद्योऽपि संगत्यवगमो न सकृद्वाक्यप्रयोगात् संभवति, व्याक्यात् संमुग्धार्थप्रतिपत्ताववयवशक्तेरावापोद्वापाभ्यां निश्चयात् / तदभावे नान्वय-व्यतिरेकाभ्यां वाचकशक्त्यवगमः, तदसत्त्वाद् न प्रेक्षावद्भिः परावबोधाय वाक्यमुच्चार्यम। उच्चार्यते च परावबोधाय वाक्यम. प्रतः परार्थवाक्यो थानुपपत्त्या निश्चीयते धमादिरिव गहीतसंबंधोऽर्थप्रतिपादकः शब्दो नित्यः। तदुक्तम्-"दर्शनस्य परार्थत्वान्नित्यः शब्द" इति / [ अतीन्द्रियार्थप्रतिपादन अपौरुषेयत्वसाधक नहीं है ] अपौरुषेयवादीः-वेद में ऐसे अर्थ दिखाये हैं जो अतीन्द्रिय हैं, तो 'अतीन्द्रियार्थप्रतिपादन' रूप धर्म अर्थापत्ति से पुरुषाभाव की कल्पना करायेगा क्योंकि उसके विना वह अनुपपन्न है। उत्तरपक्षी:-यह अनुचित है, क्योंकि अन्य आगम के लिये भी यही बात समानरूप से कही जा सकती है / दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि वेद में अप्रामाण्य न होने पर भी पुरुषाभाव सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि-अप्रामाण्य पुरुष का कार्य है, कार्याभाव होने पर कारण का अवश्य अभाव रहे यह कोई नियम न होने से कार्याभाव कारणाभाव का व्यभिचारी है अत: पुरुषाभाव के विना भाव की अनुपपत्ति का कोई संभव ही नहीं है। हाँ, जिस पुरुष का वेद के साथ कोई प्रतिबन्ध यानी संबंध ही नहीं है अथवा जो वेद की रचना में समर्थ नहीं है ऐसे पुरुष का अभाव किसी प्रमाण से सिद्ध हो सकता है किंतु सर्वथा पुरुषकर्तृत्व का अभाव किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं है / क्योंकि पुरुषमात्र का किसी भी प्रमाण से निराकरण नहीं होता / ऐसा वेद कर्ता जो अप्रामाण्योत्पत्ति का असाधारण कारण हो वह तो हमें भी इष्ट न होने से वैसे पुरुष की अभाव सिद्धि में तो हमारी भी इष्ट सिद्धि ही है। ___यह बात भी नहीं है कि वेद का प्रामाण्य पुरुषाभाव के विना न घट सकने से प्रामाण्य पुरुषाभाव को सिद्ध कर सके, क्यों कि तब अन्य आगम में भी समानरूप से प्रामाण्यद्वारक पुरुषाभाव सिद्धि होगी। 'अन्य आगम में प्रामाण्य मिथ्या है / इत्यादि चर्चा पूर्ववत् ही की जा सकती है इस लिये पुनरुक्ति करना व्यर्थ होगा। "वेदापौरुषेयत्व निराकरण समाप्त"
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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