SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमखण्ड-का० १-शब्दनित्यत्वविमर्शः 141 अथ मतम्-भूयोभूय उच्चार्यमाणः शब्दः सादृश्यादेकत्वेन निश्चीयमानोऽर्थप्रतिपत्ति विदधाति, न पुननित्यत्वात , तन्न किचिन्नित्यत्वपरिकल्पनेन प्रमाणबाधितेन / तदयुक्तम् , सादृश्येन शब्दादर्थाs. प्रतिपत्तेः / न हि सदृशतया शब्दः प्रतीयमानो वाचकत्वेनाध्यवसीयते, कित्वेकत्वेन / तथा हवं प्रतिपत्ति: 'य एव संबन्धग्रहणसमये मया प्रतिपन्नः शब्दः स एवायम्' इति / / [ अनित्यपक्ष में शब्द के परार्थोच्चारण का असंभव ] शब्द को नित्य सिद्ध करने के लिये मीमांसक अपने पक्ष की विस्तार से प्रतिष्ठा करता है शब्द का अनादिसत्त्व परार्थवाक्योच्चारण की अन्यथानुपपत्ति से गृहीत हो सकता है / कहने का भाव यह है-शब्द से अपने अर्थ का प्रतिपादन तभी होता है जब अपने अर्थ के साथ उसका संकेतरूप संबंध श्रोता को ज्ञात हो / अन्यथा जिस पुरुष को संकेतज्ञान नहीं है उसको भी शब्द से वाच्यार्थ का बोध हो जायेगा / यह संकेतज्ञान तीन प्रमाणों से संपन्न होता है-जैसे, जब कोई वृद्ध पुरुष अन्य किसी संकेतज्ञ को यह सूचन करता है-हे देवदत्त ! दंड से उस श्वेत गाय को यहाँ लाओ! इस वक्त निकट में अवस्थित संकेतज्ञान रहित पुरुष इन शब्दों का प्रत्यक्षतः श्रवण करता है और उस वाक्य के अर्थ को भी प्रत्यक्ष देखता है / तथा संकेतज्ञ श्रोता की विषयक्षेपणादि यानी धेनु-आनयनादि चेष्टा को देखने से उस वाक्य के धेनु आदि अर्थबोध का अनुमान करता है। धेनु आदि अर्थ का बोध शब्दगत प्रतिपादनशक्ति के विना अनुपपन्न हो कर अर्थापत्ति से उसकी कल्पना करवाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति तीन प्रमाणों से संकेतज्ञान केवल एक वार वाक्य सुन लेने से नहीं हो जाता / किन्तु एकबार वाक्य से संमुग्धार्थ यानी शब्दसमुदाय का अर्थ ज्ञात होने पर आवाप और उद्वाप से उस शब्दसमुदाय के अवयव शब्दों के अर्थ का निश्चय होता है / आवाप-उद्वाप यानी इन शब्दों में से कौन से शब्द का धेनु अर्थ हुआ और किस शब्द का आनयन अर्थ हआ इत्यादि ऊहापोह / इस प्रकार के ऊहापोह बराबर उस वाक्य को सुन ने पर ही होता है। यदि शब्द अनित्य होगा तो उसका पुनः पुनः उच्चारण असंभव हो जाने से अन्वय और व्यतिरेक से जो 'गो' शब्द की वाचकशक्ति का बोध होना चाहिये [ जैसे कि पहले 'गो' शब्द के साथ आनयन क्रिया का प्रयोग सुनकर धेनु का आनयन किया किन्तु बाद में 'गो' के बदले 'अश्व' का प्रयोग होने पर 'गो' के बदले अश्व का आनयन हुआ किन्तु गो का आनयन नहीं हुआ-इस प्रकार के अन्वय-व्यतिरेक से गो शब्द की धेनु अर्थ में वाचकशक्ति का बोध होना चाहिये ] वह नहीं होगा और संकेतज्ञान न होने पर दूसरे को प्रबोधित करने के लिये बुद्धि मन्तों को वाक्य प्रयोग ही नहीं करना होगा। किन्तु वे दूसरे को प्रबोधित करने के लिये वाक्यप्रयोग करते हैं-यह अनेक बार किया जाने वाला वाक्यप्रयोग शब्द की नित्यता के विना अनुपपन्न होने से यह निश्चित होता है कि धूमादि की भाँति व्याप्ति जैसा संबंध [ संकेत ] ज्ञात रहने पर अग्नि आदि अर्थ का बोध कराने वाला शब्द नित्य है। कहा भी गया है कि 'वेद वाक्य का उपदेश दूसरे के लिये होता है इसलिये शब्द नित्य है।' [ सादृश्य से शब्द में एकत्वनिश्चय से अर्थबोध का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-'बार बार शब्द प्रयोग होने पर साम्य के कारण ऐक्यरूप से शब्द का निश्चय होता है और उसीसे अर्थ का बोध होता है। आशय यह है कि शब्द नित्य होने से अर्थ
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy