________________ 400 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 "नातीन्द्रयार्थप्रतिषेधो विशेषस्य कस्यचित् साधनेन निराकरणेन वा कार्यः-तदभावे विशेषसाधनस्य तन्निराकरणहेतोर्वाऽऽश्रयासिद्धत्वात्-किन्त्वतीन्द्रियमर्थमभ्युपगच्छंस्तसिद्धौ प्रमाणं प्रष्टव्यः / स चेत् तत्सिद्धौ प्रयोजकं हेतु दर्शयति 'ओम्' इति कृत्वाऽसौ प्रतिपत्त यः / अथ न दर्शयति, प्रमारणाभावादेवासौ नास्ति, न तु विशेषाभावात्" [ ) तस्माद् ज्ञान-चिकोर्षा-प्रयत्नानां समवायोऽस्तीश्वरे, ते तु ज्ञानादयोऽस्मदादिज्ञानादिभ्यो विलक्षणाः, वैलक्षण्यं च नित्यत्वादिधर्मयोगात् / तन्नेश्वरशरीरस्य कर्तृ विशेषस्य व्याप्त्यभावात् सिद्धिः। __ नाऽप्यसर्वज्ञत्वं विशेषः कुलालादिषु दृष्टस्तत्र साध्यते, तत्सिद्धावपि विशेषविरुद्धस्य व्याप्त्यभाव एव / न ह्यसर्वविदा क; कुलालादिना किंचित कार्य क्रियते / ननु कुलालादेः सर्ववित्त्वे नेदानी कश्चिदसर्ववित् / एवमेव, यद् यः करोति स तस्योपादानादिकारणकलापं प्रयोजनं च जानाति, अन्यथा तक्रियाऽयोगात् / सर्वज्ञत्वं च प्रकृतकार्यतन्निमित्तापेक्षम् , अतः कुलालादिर्यथा कर्ता स्वकार्यस्य सर्व जानात्युपादानादि एवमीश्वरोऽपि सर्वकर्ता सर्वस्य करण-प्रयोजनं विवादविषयस्य सर्वस्योपादानकारणादि च कर्तृत्वादेव जानाति, अतः कथमसावसर्ववित ? पूर्वपक्षी:-वह भी हमें मान्य है। नैयायिक:-जब आपके मत से ईश्वर ही नहीं है तब शरीरादिसंयोग को आप किस के विशेषरूप में सिद्ध करेंगे? यहाँ आश्रयासिद्धि दोष है इसीलिये दूसरे वादीओंने भी यह कहा है-- [अतीन्द्रिय अर्थ के निषेध का वास्तव उपाय ] "अतीन्द्रिय अर्थ का निषेध उसके किसी अनिष्ट विशेषधर्म के साधन से या इष्ट किसी विशेष के निराकरण के द्वारा नहीं करना चाहिये, क्योंकि जब निराकरण करनेवाले के मत में वह अर्थ ही असिद्ध है तो उसके विशेष का साधन या निराकरण करने वाला हेतु ही आश्रयासिद्धिदोष से दूषित हो जायेगा। तो क्या करना ! करना यह चाहिये कि अतीन्द्रिय अर्थ मानने वाले को उसकी सिद्धि में 'क्या प्रमाण है' यह पूछना चाहिये। यदि वह उसकी सिद्धि में तर्कपुष्ट प्रमाण प्रस्तुत करे तो 'हाँ' कह कर उसका स्वागत कर लेना चाहिये / यदि प्रमाण न दिखा सके तो प्रमाण के अभाव से ही उस अर्थ का निषेध सिद्ध होगा, विशेषों के न घटने से नहीं।" अन्यवादीओं के उक्त कथन से फलित यह होता है कि ईश्वर सिद्धि में यदि प्रमाणभूत हेतु है तो उसका निषेध शक्य न होने से उसमें कर्तृत्व की उपपत्ति के लिये ज्ञान-चिकीर्षा और प्रयत्न का समवाय भी उसमें मानना ही पडेगा / हमारे ज्ञानादि से उनके ज्ञानादि को कुछ विलक्षण मानना पडे तो यह भी मानना होगा / वह वैलक्षण्य यही होगा कि हमारा ज्ञानादि आत्ममनः संयोगजन्य होने से अनित्य है और ईश्वर को मन न होने के कारण उसका ज्ञानादि नित्य, व्यापक इत्यादि है / इस प्रकार जब कर्ता के विशेषस्वरूप शरीर को कार्य के साथ व्याप्ति ही नहीं है तब ईश्वर में शरीरसिद्धि का आपादन अशक्य है। [ असर्वज्ञत्वरूप आपादितविशेष का निराकरण ] शरीररूप विशेष जैसे ईश्वर में सिद्ध नहीं किया जा सकता उसी तरह असर्वज्ञत्वरूप विशेष कुम्भकारादि में दिखता है उसका भी ईश्वर में आपादन अशक्य है / ईश्वर में कार्य हेतु से असर्वज्ञत्व