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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे पूर्वपक्षः 366 'प्रसक्तानां विशेषाणां प्रमाणान्तरबाधया विशेषविरुद्धताऽनवकाश' इत्युक्तं तत्र कतमस्य प्रसक्तस्य विशेषस्य केन प्रमाणेन निराकृतिः ? शरीरसम्बन्धस्य तावद व्याप्त्यभावेन, शरीरान्तररहितस्याऽप्यात्मनः स्वशरीरधारण-प्रेरणक्रियासु यथा / अथात्मनः प्रयत्नवत्त्वाद् धारणादिक्रियासु शरीराद्याधारासु कर्तृत्वं युक्तम् नेश्वरस्य, तद्रहितत्वात् तथा च भवतां मुख्यं कर्तृ लक्षणम्-"ज्ञान-चिकीर्षाप्रयत्नानां समवायः कर्तृता" [ ] इति / केनेश्वरस्य तद्रहितत्वात (इति)प्रयत्नप्रतिषेधः कृतः ! 'आत्म-मनःसंयोगजन्यत्वात् प्रयत्नस्य ईश्वरस्य तदसम्भवात् कारणाभावात् तनिषेधः' / बुद्धिस्तोंश्वरे कथं तस्या अपि मनःसंयोगजन्यतैव ? 'साऽपि मा भूत का नः क्षतिः' ? ननु तदसत्तैव न त्वन्या चत / 'साऽपि भवत'। तदभावे कस्य विशेषः शरीरादिसंयोगलक्षणः साध्यते ? अत एवान्यरुक्तम् ___उक्त तीन पक्षों में से कौन सा युक्तियुक्त है या नहीं यह विचार तो विशेषज्ञ सूरिवर्ग करेगा, हमारा इनमें से किसी में भी कोई आग्रह नहीं है, हमें तो यही कहना है कि जब साध्यविरोधी हेतुओं या अनुमानों के ऊपर विशेष पर्यालोचन किया जायेगा तब किसी भी पक्ष को मानने पर इतना तो अवश्य सिद्ध होता है कि विशेषविरुद्ध किसी भी रीति से दूषणरूप नहीं है। विशेषविरुद्ध अनुमानों से प्रसक्त विशेषों का चाहे प्रमाणान्तरबाध से निराकरण माना जाय, या अन्वयव्यतिरेकीमूलक केवलव्यतिरेकीबल से निराकरण हो, अथवा तो पक्षधर्मता के प्रभाव से या कारणविशेष के साथ कार्यविशेष की व्याप्ति के बल से निराकरण हो-हम इस विषय में प्रयत्न नहीं करते हैं / तात्पर्य यही फलित होता है कि कार्यत्वहेतु में कर्ता की व्याप्ति किसी भी रीति से असिद्ध नहीं है। [शरीररूप आपादितविशेष का निराकरण ] - पूर्वपक्षीः-प्रसक्तविशेषों में अन्य प्रमाण का बोध होने से विशेषविरुद्धता दोष निरवकाश हैयह जो कहा, तो कौन से प्रसक्त विशेष का किस प्रमाण से निराकरण हुआ, यह दिखाओ ! नैयायिकः-शरीरसम्बन्ध की प्रसक्ति की जाती है तो उसका विघटन व्याप्ति-अभावप्रदर्शन से किया जाता है / कार्यत्व को शरीरसम्बन्ध के साथ व्याप्ति ही नहीं है / जैसे देखिये-आत्मा अपने शरीर में जो धारण-प्रेरणादि क्रिया को उत्पन्न करता है वह भी कार्य है किन्तु न तो वह उस शरीर सम्बन्ध से जन्य है, न तो अन्य शरीरसम्बन्ध से। पूर्वपक्षीः-आत्मा तो प्रयत्नवान् है अत: शरीरादि सम्बन्धी धारणादिक्रिया का वह कर्ता बन सकता है, ईश्वर प्रयत्नहीन होने से कर्ता नहीं हो सकता / कर्ता का प्रमुख लक्षण ही आपने यह कहा है-"ज्ञान, चिकीर्षा (करने की इच्छा) और प्रयत्न का समवाय संबंध यही कर्तृत्व है।" नैयायिक:-'ईश्वर प्रयत्नरहित है' ऐसा प्रयत्ननिषेध किसने दिखाया ? पूर्वपक्षीः-प्रयत्न आत्मा और मन के संयोग से उत्पन्न होता है यह आपका सिद्धान्त है, ईश्वर में मन न होने से, कारणभूत मन के अभाव से प्रयत्नरूप कार्य का निषेध स्वतः फलित होता है। नैयायिकः-तब ज्ञान भी आत्मा और मन के संयोग से जन्य होने से ईश्वर में ज्ञान भी कैसे घटेगा? पूर्वपक्षी:-मत मानीये, हमें क्या नुकसान है ? ' नैयायिकः-ईश्वर का ही अभाव प्रसक्त होगा यही, और कोई नहीं।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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