________________ प्रथमखण्ड-का० 1 ईश्वरकर्तृत्वे उ०पक्षः 523 भेदात् कथं न तस्य भेदः अपरस्य तन्निबन्धनस्याभावात् ? तथा च क्रमवय॑नेकमंकुरादिकार्य नाऽनमैकेश्वरविहितमिति नैकत्वं तस्य सिद्धिमासादयति / तन्न सर्वज्ञत्वाऽशरीरित्वैकत्वादिधर्मयोगस्तस्य सिद्धिमपढौकते। नापि कृत्रिमज्ञानसंबन्धित्वं तज्ज्ञानस्य प्रत्यर्थनियमाभावात' इत्यादि यदक्तम तदपि निरस्तम् , नित्यसर्वपदार्थविषयज्ञानसम्बन्धित्वस्य तत्र प्रतिषिद्धत्वात् / यच्च-'यथा स्थपत्यादीनां महाप्रासादादिकरणे एकाभिप्रायनियमितानामैकमत्यं तद्वदत्रापि यदि क्षित्याद्यनेककार्यकरणे बहूनां नियामकः कश्चिदेकोऽस्ति, स एवेश्वरः' इत्युक्तम् , तदप्यसंगतम् , यतो न ह्ययं नियमः-एकेनैव सर्व कार्य निर्वर्तनीयम् एकनियमितैर्वा बहुभिरिति, अनेकधा कार्यकर्तृत्वदर्शनात् / तथाहि-a क्वचिदेक एवैककार्यस्य विधाता उपलभ्यते यथा कुविन्दः कश्चिदेकस्य पटस्य, b क्वचिदेक एव बहूनां कार्याणाम् यथा घट-शरावोदञ्चनानामेकः कुलालः 'c क्वचिदनेकोऽप्यनेकस्य यथा घट-पट-शकटादीनां कुलालादिः, d क्वचिदनेकोऽप्येकस्य यथा शिबिकोद्वहनादेरनेकः पुरुषसंघातः / न च प्रासादादिलक्षणेऽप्यनेकस्थपत्यादिनिर्व]ऽवश्यंतयैकसूत्रधारनियमितानां तेषां तत्र व्यापार करता ही है / यदि वह उसे उत्पन्न न करेगा तो उसमें उस वक्त तज्जननस्वभाव ही नहीं हो सकेगा। सर्वदा एक स्वभाववाला ईश्वर तो कर्मादिसामग्रीसंनिधान के पहले भी सर्वकार्यों के प्रति उत्पादक स्वभाववाला ही है अत: इस स्वभावात्मक हेतु से, ईश्वर से एक साथ सर्वकार्यों की उत्पत्ति की आपत्ति आयेगी। [ ईश्वर में स्वभावभेदापत्ति ] अब यदि ऐसा कहें कि-ईश्वर में वैसा स्वभाव होने पर भी कर्मादि सामग्री के अभाव में वह प्रस्तुत कार्य को उत्पन्न नहीं करता है-तब तो कहना होगा कि वह उस कार्य के जनकस्वभाववाला नहीं है / यह नियम है कि जब भी जो जिस कार्य को उत्पन्न नहीं करता उस समय वह तत्कार्य के जनकस्वभाववाला नहीं होता जैसे शालीबीज यव-अंकुर के जनकस्वभाववाला नहीं होता / यदि तत्कार्य के अजनक को भी तत्कार्य के प्रति जनकस्वभाववाला मानेंगे तो यवांकुर का अजनक भी शालीबीज यवजन कस्वभाववाला माना जा सकेगा, यह अतिप्रसंग होगा। (प्रस्तुत में) कर्मादिसामग्री के अभाव में ईश्वर विवक्षित कार्य को नहीं उत्पन्न करता है अतः इस व्यापक की अनुपलब्धिरूप हेतू से उस में व्याप्यभूत तत्कार्यजनकस्वभाव का अभाव ही सिद्ध होगा। यदि कहें कि कर्मादिसामग्री के अभाव में हम कर्मादिसापेक्ष जनकत्वस्वभाव का अभाव ही मानते हैं तब तो कर्मादि सहकारि के संनिधान में उसका यह स्वभाव बदल जाने से, स्वभावभेद प्रयुक्त व्यक्तिभेद भी ईश्वर में क्यों प्रसक्त नहीं होगा? स्वभावभेद के विना अन्य कोई व्यक्तिभेद का प्रयोजक नहीं है / व्यक्तिभेद सिद्ध होने पर यह कहा जा सकता है कि-क्रमिक अनेक अंकुरादि कार्यों को अक्रमिक एक ईश्वर नहीं कर सकता, फलत: अंकुरादि कार्यों को करने वाले एक ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकेगी। सारांश, ईश्वर में सर्वज्ञता, अशरीरित्व, एकत्व आदि धर्मों का योग सिद्धिपदारूढ नहीं है / अत: यह जो पूर्वपक्षी ने कहा था-कृत्रिमज्ञान संबन्धिता रूप विशेष भी ईश्वर में सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि कृत्रिमज्ञान में अमुक ही अर्थ की विषयता का नियम नहीं हो सकता-[ 407-5 ] यह भी परास्त हो जाता है, क्योंकि ईश्वर में सकलपदार्थविषयक नित्यज्ञान का सम्बन्ध नहीं घट सकता यह पहले कह आये हैं।