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________________ 13 ___व्याख्याकार की शैली ऐसी है कि वे एक दर्शन के सहारे अन्य दर्शन का खंडन करते हैं। इसके सामने किसी ने प्रश्न किया ( द्र. पृ. 128) कि आप जैन होकर भी बौद्ध की युक्तियों से मीमांसक के स्वतःप्रामाण्यवाद का खंडन क्यों करते हो? इसके उत्तर में व्याख्याकार ने सम्मति ( ३/७०-पृष्ठ 128 ) की ही गाथा तथा ग्रन्थकारकृत बत्रीशी की गाथा का उद्धरण दे कर यह रोचक समाधान किया है कि जैन दर्शन समुद्र जैसा है और वह अनेक जैनेतरदर्शन की सरिताओं का मिलन स्थान है, सभी दर्शन परस्पर सापेक्षभाव से मिलने पर सम्यग् दर्शन बन जाते हैं और परस्पर निरपेक्ष रहते हैं तभी मिथ्या दर्शन हो जाते हैं। अतः सर्वत्र बौद्धादिदर्शन के अवलम्ब से अन्य अन्य दर्शनों का खंडन करने में हमारा यही दिखाने का अभिप्राय है कि स्वतंत्र एक एक दर्शन मिथ्या है और परस्पर सापेक्ष सभी दर्शनों का समूह समीचीन दर्शन है और वही जैन दर्शन है, इसलिये कोई दोष नहीं है / आचार्य श्री का यह उत्तर जैन-जैनेतर सभी के लिये दिशा सूचक है। मुमुक्षु जिज्ञासु अधिकृत विद्वद्वर्ग इस ग्रन्थरत्न का अध्ययन करके आत्मश्रेय सिद्ध करे यही शुभेच्छा / हिन्दी विवरण में कहीं भी श्री जिनागम-सिद्धान्त के विरुद्ध अथवा मूलकार या व्याख्याकार महर्षि के आशय से विपरीत कुछ भी लिखा गया हो तो उसके लिये मिच्छामि दुक्कडम् / वि० सं० 2040 अषाढ वदि 1, शनिवार मुनि जयसुन्दर विजय जैन उपाश्रय-पुना XXXXXXXXXXXXX Xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx अनन्तोपकारी सुविशुद्धब्रह्ममूर्ति कृपाभंडार सुविशालगच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज के पुनिन चरणों में कोटि कोटि वन्दना / XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX**
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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