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________________ 112 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, असौ ज्ञातृव्यापारोमिस्वभावः, उत धर्मस्वभाव: ? इति पुनरपि कल्पनाद्वयम् / धर्मिस्वरूपत्वे ज्ञातृवन्न प्रमाणान्तरगम्यत्वमित्युक्तम् / धर्मस्वभावत्वेऽपि मिणो ज्ञातुर्व्यतिरिक्तो व्यापारः, अव्यतिरिक्तः, उभयम् , अनुभयं चेति चत्वारो विकल्पाः। न तावद् व्यतिरिक्त, तत्त्वे संबन्धाभावेन 'ज्ञातुापारः' इति व्यपदेशाऽयोगात् / अव्यतिरेके ज्ञातैव तत्स्वरूपवद् नापरो व्यापारः। उभयपक्षस्तु विरोधमपरिहृत्य नाभ्युपगमनीयः / अनुभयपक्षस्तु अन्यान्यव्यवच्छेदरूपाणामेकविधानेनापरनिषेधादयुक्तः इति प्रतिपादितम् / किं च व्यापारस्य कारकजन्यत्वाभ्युपगमे तज्जनने प्रवर्तमानानि कारकाणि किमपरव्यापारभाञ्जि प्रवर्तन्ते, उत तन्निरपेक्षाणि ? इति विकल्पद्वयम् / यद्याद्यो विकल्पः, तदा तद्वयापारजननेऽपि तेरपरव्यापारभाग्भिः प्रवत्तितव्यम् , तज्जननेऽप्यपरव्यापारयुग्भिः प्रवत्तितव्यमित्यनवस्थितेन फलजननव्यापारोद्भतिरिति तत्फलस्याप्यनुत्पत्तिप्रसाद न व्यापारपरिकल्पनं श्रेयः / अथ अपरब्यापारमन्तरेणापि फलजनकव्यापारजनने प्रवर्तन्ते इति नायं दोषः, तहि प्रकृतव्यापारमन्तरेणापि फलजनने प्रवत्तिष्यन्त इति किमनुपलभ्यमानव्यापारकल्पनप्रयासेन? वह बोधस्वरूप होगा तो प्रमाता को जैसे अन्य कोई प्रमाण का विषय नहीं मानते हैं उस प्रकार बोधात्मक व्यापार को भी अन्य प्रमाण का विषय मानना यूक्त नहीं होगा। (2) अबोधस्वभाव व्यापार का पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योंकि ज्ञाता का व्यापार बोधात्मक ही होने से उसकी अबोधस्वरूपता का संभव नहीं है / ज्ञाता स्वयं ज्ञानमय है इसलिये उसके व्यापार को अज्ञानमय मानना अयुक्त है। 'जानता है' इस प्रकार बोधात्मक ही ज्ञातृव्यापार बोला जाता है / फलित यह होता है कि ज्ञातृव्यापार अबोधस्वरूप नहीं हो सकता। [ ज्ञातृव्यापार धर्मरूप है या धर्मिरूप 1 ] यह भी विचार करने योग्य है कि यह ज्ञातृव्यापार स्वयं मिरूप है या धर्मरूप ? मिस्वरूप होने पर तो ज्ञाता जैसे प्रमाणान्तर गम्य नहीं है वैसे व्यापार भी प्रमाणान्तर गम्य न होगा यह तो अभी ही बोधस्वभाव विकल्प में कह दिया। धर्मरूप व्यापार पक्ष में चार विकल्प हैं (1) मिरूप ज्ञाता से वह व्यापार भिन्न है, (2) या अभिन्न है, (3) अथवा भिन्नाभिन्न उभयरूप है, (4) या फिर दोनों में से एक भी नहीं? भिन्न है-यह प्रथम पक्ष ठीक नहीं है क्योंकि तब उसका धर्मी के साथ कोई संबंध न होने से 'ज्ञाता का व्यापार' इस प्रकार नहीं बोल सकेंगे। यदि अभिन्न माना जाय तो वह ज्ञातारूप ही हुआ, जैसे उस ज्ञाता का स्वरूप उससे अभिन्न होता है तो वह ज्ञातारूप ही होता है इसलिये व्यापार धर्मी से कोई अलग तत्त्व नहीं हआ। भिन्नाभिन्न उभय पक्ष विरोध का परिहार किये विना नहीं माना जा सकता क्योंकि भिन्न और अभिन्न परस्पर विरोधी होने से एकरूप नहीं हो सकता / 'भिन्न-अभिन्न दोनों में से एक भी नहीं यह चौथे विकल्प के ऊपर तो पहले भी कहा है कि जो अन्योन्य व्यवच्छेद स्वरूप होते हैं उनमें से एक का विधान करे तो दूसरे का निषेध बलाद् हो जाता है / इसलिये चौथा विकल्प अयुक्त ही है। [व्यापार की उत्पत्ति में अन्य व्यापार की अपेक्षा है या नहीं ?] व्यापार को कारकजन्य मानने के पक्ष में यह भी दो विकल्प ऊठाने योग्य हैं-[१] व्यापारोत्पत्ति में उपयुज्यमान कारक अन्य कोई व्यापार से सहकृत होकर प्रवृत्त होते हैं ? या [2] उसकी
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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