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________________ 154 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नापि श्रोत्रसंस्कारोऽभिव्यक्तिरिति पक्षो युक्तः / तस्मिन्नपि पक्षे सकृत् संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपत् श्रुणुयात् / न हि अंजनादिना संस्कृतं चक्षः संनिहितं स्वविषयं किंचित् पश्यति किचिन्नेति दृष्टम् / अथ व्यंजकानां वायनां भिन्नेष कर्णमलावयवेष वर्तमानानां संस्काराधायकत्वेनापित्त्या प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्तिलक्षणया प्रतिनियतवर्णग्राहकत्वेन संस्काराधायकत्वस्य प्रतीतेनेकवर्णग्राहकत्वेन संस्कृतं श्रोत्रं सर्ववर्णान् युगपद् गृह्णाति इति।। तथाहि-वायवीयशब्दपक्षे यथा गकारादेनिष्पत्त्यर्थं प्रयत्नप्रेरितो वायुनयिं वर्णमुत्पादयति तथाऽस्मत्पक्षेऽप्यन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारे समर्थो नाऽन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्कारं विधास्यति / येषां तु ताल्वादिसंयोग-वियोगनिमित्तः शब्द इति पक्षः तेषां यथाऽन्यगकारादिजनकः संयोग-विभागै न्यो वर्णो जन्यते तथाऽस्मत्पक्षेऽपि नान्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकव्यंजकप्रेरकैरन्यवर्णग्राहकश्रोत्रसंस्काराधायकवायुप्रेरणं क्रियत इत्युत्पत्त्य-भिव्यक्तिपक्षयोः कार्यदर्शनान्यथानुपपत्त्या समः सामर्थ्य भेदः प्रयत्नविवक्षयोः सिद्धः। पूर्वोक्त दोष को अवकाश नहीं।"-ऐसा कहने पर तो आपने अपनी जबान से ही शब्द में स्वभाव परिवर्तनस्व रूप परिणामित्व का स्वीकार लिया, फिर तो कोई विवाद ही नहीं रहता / सारांश, / आभव्यक्ति का पक्ष असंगत है, क्यों कि अन्ततः उत्पत्ति में ही उसका पर्यवसान फलित होता है। [ श्रोत्रसंस्कारस्वरूप अभिव्यक्ति पक्ष की समीक्षा ] व्यंजक वायुओं से श्रोत्र का संस्कार होता है-यह पक्ष भी युक्तिसंगत नहीं है / इस पक्ष में भी यह आपत्ति है कि एक बार श्रोत्र का संस्कार हो जाने पर सभी वर्ण एक साथ ही सुनाई देंगे। ऐसा नहीं देखा गया कि नेत्र में अंजनादि लगाने पर निकट में अवस्थित अपना एक विषय तो देखने में आवे और दूसरा न आवे। [श्रोत्रसंस्कारवादी का विस्तृत अभिप्राय ] . संस्कारवादी:-श्रोत्र संस्कार पक्ष में, भिन्न-भिन्न कर्णमूल के अवयवों में रहे हुए व्यंजक वायु श्रोत्र के संस्कार कर्ता हैं, व्यंजकवायु सर्ववर्णों का ग्रहण एक साथ हो जाय इस प्रकार के संस्कार का आधान नहीं करते किंत प्रतिनियत वर्ण का ग्रहण हो इसप्रकार के ही श्रोत्र संस्कार का आधान करते हैं, क्योंकि इसप्रकार न माने तो वर्णों का एक साथ श्रवण न होकर प्रतिनियत वर्ण का ही श्रवण होता है यह बात नहीं घटेगी। इस अर्थापत्ति से होने वाली प्रतिनियत वर्णग्रहणानुकुल श्रोत्रसंस्कार को प्रतीति से यह कहा जा सकता है कि एकवर्णग्राहकरूप में ही श्रोत्र का संस्कार होने पर सर्ववर्णों का एक साथ ग्रहण होने की आपत्ति नहीं है / [एकसाथ सकलवर्णश्रवणापत्ति का प्रतिकार ] एक साथ सभी वर्गों के ग्रहण की अनापत्ति इस प्रकार है-जो सज्जन विद्वान् शब्द को वायु परिणामरूप मानते हैं उनके मत में गकारादि उच्चारण के लिये किये गये प्रयत्न से प्रेरित वायु से जैसे अन्य ककारादि वर्णोत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार हमारे मत में भी एक वर्ण का ग्रहण कराने वाले श्रोत्रसंस्कार करने में समर्थ व्यंजक जो वाय होता है वह किसी अन्य वर्ण ग्रहण कराने वाले श्रोत्रसंस्कार को नहीं करता है / जो विद्वान् शब्द को तालु आदि स्थानों में वायु के संयोग
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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