________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 (B2) अथ सकलविशेषाधायकत्वेन, न तहि निर्विकल्पकात् सविकल्पकोत्पत्तिः / न च निविकल्पकयोरप्युपादानोपादेयत्वेनाऽभ्युपगतयोस्तद्भावः स्यात् , तथा च कुतो रूपाकारात् समनन्तरप्रत्ययात् कदाचिद् रसाद्याकारस्याप्युपादेयत्वेनाभिमतस्योत्पत्तिः ? अथ विज्ञानसन्तानबहुत्वाभ्युपगमानायं दोषः तेन सर्वस्य स्वसशस्योत्पत्तिः, तमुस्मिन् दर्शन एकस्मिन्नपि सन्ताने प्रमातृनानात्वप्रसङ्गः, तथा च गवाश्वदर्शनयोभिन्नसन्तानवतिनोरेकेन दृष्टेऽर्थेऽपरस्यानुसन्धानं न स्यात् , देवदत्तयज्ञदत्तसन्तानगतयोरिवान्येनानुभूतेऽन्यस्य। दृश्यते च-गामहं ज्ञातवान् पूर्वमश्वं जानाम्यहं पुनः / [ श्लो० वा० ५-आत्म० 122 ] कि च, सकलस्वगतविशेषाधायकत्वे सर्वात्मनोपादेयज्ञानक्षणे तस्योपयोगादनुपयुक्तस्यापरस्वभावस्याभावाद्योगिविज्ञानं रूपादिकं चैकसामग्र्यन्तर्गतं प्रति न सहकारित्वं तस्येति सहकारिकारणाभावे नोपादेयक्षणव्यतिरिक्तकार्यान्तरोत्पाद: / तो सभी विषयों के प्रति उदासीन रहेगा, अतः आकार के आधार पर जो 'यह ज्ञान रूप का ही ग्राहक है, इसका नहीं, इस प्रकार प्रत्येक कर्म यानी विषय के सम्बन्ध में तत् तत् ज्ञान की व्यवस्था होती है वह नहीं हो सकेगी। दूसरे, रूपज्ञान और रूप सर्वथा भिन्नस्वरूप होने पर भी रूप को रूपज्ञान का उपादान कारण मानेंगे तो ज्ञान के प्रति शरीर को उपादान कारण मानने वाले नास्तिक की इष्टसिद्धि होने से परलोक को जलाञ्जलि दे देने की आपत्ति आपको आयेगी। तथा यदि उपादान कारण को कुछ ही विशेषों का आधान करने वाला मानेंगे तो अपने कार्य के कुछ विशेष धर्म तो कारण में भी अनुगत रहेगा और कारणगत अन्य विशेष धर्मों, जिन का आधान कार्य में नहीं हुआ हैं, वे कार्य से व्यावृत्त रहेंगे / फलतः एक ही कारणभूत ज्ञानक्षण में कुछ तत्कार्यानुगत धर्म का सम्बन्ध रहेगा और कुछ तत्कार्यव्यावृत्तधर्म का सम्बन्ध रहेगा-इस प्रकार मानने पर तो विरुद्धधर्माध्यास भी स्वीकारना होगा इस स्थिति में हम कह सकते हैं कि जब एक साथ ही रहने वाले अनेक विरुद्ध धर्मों का अध्यास होने पर भी वह ज्ञानक्षण एक ही है तो भिन्न भिन्न काल में एक ही वस्तु में अनेक विरुद्ध धर्मों का योग मान कर वस्तु को एक और अनेक क्षणस्थायी क्यों न मानी जाय? [सकलविशेषाधान द्वितीय विकल्प के तीन दोष ] ) यदि कार्य में जो अपने सकलविशेषों का आधान करे उसको उपादान कहा जाय तो तीन दोष हैं-(१) निर्विकल्पक के सकल विशेषों का सविकल्प में आधान न होने से निर्विकल्प से सविकल्प ज्ञान की उत्पत्ति न होगी। (2) जब पूर्वापर भाव से दो निर्विकल्पकज्ञान उत्पन्न होते हैं तो उन में उपादान-उपादेयभाव सर्वमान्य है किन्तु वह अब नहीं घटेगा कि निर्विकल्पकज्ञान विशेषाकारशून्य होने से सकलविशेष के आधान का सम्भव ही नहीं है / (3) पूर्वकालीन रूपाकार समनन्तर प्रत्ययरूप उपादान से उत्तरकाल में कभी रसाद्याकार उपादेयज्ञान को उत्पत्ति आप को अभिमत है किन्तु वह भी नहीं घटेगी क्योंकि रूपाकार ज्ञान अपने सकल विशेषों में अन्तर्गत रूपाकार का हो आधान उपादेय में करेगा। [एक काल में अनेक संतान मानने में आपत्ति ] यदि दोनों दोषों के निवारणार्थ यह कहा जाय-"सविकल्पज्ञान अपने पूर्वकालीन सदृशज्ञान से, निर्विकल्पज्ञान भी अपने पूर्वकालीन सदृशज्ञान से और रसाद्याकारज्ञान भी अपने