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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यथार्थत्वविशिष्टस्यैव तस्य संवित्तिः। न हि नीलसंवेदनादन्या यथार्थत्वसंवित्तिः-यद्येवम्, शुक्तिकायां रजतज्ञानेऽपि अर्थसंवेदनस्वभावत्वाद्यथार्थत्वप्रसक्तिः। स्मृतिप्रमोषादयस्तु निषेत्स्यन्ते इति नानुमानादपि तत्प्रामाण्यनिश्चयः। यहाँ यह बचाव कर सकते हैं कि-पहले दो फल जो कहे गए, एक अर्थसंवेदन व दूसरा अर्थ प्रकटता यानी अर्थनिष्ट ज्ञातता वे दोनों अनुभव से निश्चित होते हैं, तो जैसे उनका पूर्वोक्त स्वरूप अर्थात् संवेदनरूपत्वादि स्वरूप स्वतः निश्चित होता है, उस प्रकार उसका यथार्थत्व-स्वरूप भी स्वत: निश्चित हो जाता है। जिस प्रकार बाह्य नील का संवेदन जब भी होता है तभी नील संवेदन रूप से ही संवेदन होता है अर्थात् 'इदं नील-यह नील है' ऐसे अनुभव के अन्तर्गत ही 'इदं नीलं पश्यामिमैं इस नील को देख रहा हूँ'-यह अनुभव शामिल है ठीक उसी प्रकार नील संवेदन का अनुभव यथार्थत्व विशिष्ट ही होता है अर्थात् ऐसा अनुभव होता है कि 'इदं नीलं प्रमिणोमि मैं इस नील को ठीक ही देख रहा हं !' फलतः ऐसे स्वत: निश्चित प्रामाण्य वाले संवेदन से ही विज्ञान-प्रामाण्य का अनुमान होता है। __ (न हि नीलसंवेदनादन्या....) प्र०-नील संवेदन भले ही स्वतः संवेद्य होने से उसके होते ही उसका संवेदन हुआ किन्तु तद्गत यथार्थत्व का संवेदन कैसे हुआ ? उ०-जैसे नील संवेदन का संवेदन नीलसंवेदन से कोई भिन्न नहीं, इस प्रकार यथार्थ नीलसंवेदन के यथार्थत्व का संवेदन भी नील संवेदन से कोई भिन्न संवेदन नहीं है। अत: नील संवेदन जो संवेद्य हुआ वह यथार्थ रूप में ही संवेद्य हुआ यह कह सकते हैं / इस प्रकार निर्विशेषण अर्थात् यथार्थत्व विशेषण रहित अर्थ संवेदन स्वरूप फल यह अनुमिति में हेतु बनकर विज्ञान के प्रामाण्य का अनुमापक हो सकता है। अब यहाँ इस बचाव का खण्डन बताते हैं: (यद्यवेम् शुक्तिकायां....) अगर आप इस प्रकार सभी संवेदन को यथार्थत्व विशिष्ट ही मानते हैं, तब तो शुक्तिका (मोती की सीप) को देखकर कदाचित् 'इदं रजतम्-यह रजत है-यह चांदी है' ऐसा जो ज्ञान होता है वह भी अर्थ का संवेदन होने के नाते यथार्थ ही संवेदन होने की आपत्ति आएगी, क्योंकि आप संवेदनमात्र को यथार्थत्व विशिष्ट ही संवेदन मानते हैं। अगर आप कहें-"हां यह यथार्थ ही है, क्योंकि 'इदं यह' इस अंश में तो संवेदन यथार्थ है ही, कारण वस्तु 'यह' यानी पुरोवर्ती है ही, और पूरोवर्ती रूप में देख रहे हैं, और 'रजतम्' इस अंश में पूरोवर्तो के चाकचिक्य-चकचकाट को देखकर रजत का स्मरण हुआ है, और स्मरण में कोई अयथार्थता नहीं। यहाँ आप इतना पूछ सकते हैं प्र०-अगर वह रजत का स्मरण हो तब तो उसमें 'तद् रजतं'='वह चांदी' ऐसा 'तद्=वह' का उल्लेख होना चाहिए, क्योंकि स्मरण में 'तद् वह' का उल्लेख होता ही है, उदाहरणार्थ-बाजार में मिले किसी आदमी को घर पर याद करते हैं तो 'वह आदमी', इस प्रकार 'वह' के उल्लेख के साथ ही याद करते हैं। उ०-आपकी बात सही है किन्तु, यहां इतना विशेष है कि शुक्ति में होने वाले रजत-ज्ञान में 'स्मृति प्रमोष' होता है, अर्थात् स्मरणत्व अंश चुराया जाता है, मतलब, वह ध्यान में नहीं आता।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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