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________________ प्रथम खण्ड-का० 1 प्रामाण्यवाद किं च, प्रत्यक्षानुमानयोः प्रामाण्यनिश्चयनिमित्तत्वेऽभ्युपगम्यमाने स्वतः प्रामाण्यनिश्चयव्याहतिप्रसङ्गः, तन्नान्यनिमित्तोऽपि प्रामाण्यनिश्चयः / यदुक्तम् 'नापि प्रामाण्यं स्वनिश्चयेऽन्यापेक्षं, तयपेक्षमाणं किं कारणगुणानपेक्षते'....इत्यादि[प. 21] तदनभ्युपगमोपालम्भमात्रम् / न ह्यस्मदभ्युपगमः यदुत ज्ञानात प्रामाण्यं विज्ञायते. कारणगरणानां संवादप्रत्ययमन्तरेण ज्ञातमशक्यत्वात् / संवदाप्रत्ययात्तु कारणगुणपरिज्ञानाभ्युपगमे तत एव प्रामाण्यन्निश्चयम्यापि सिद्धत्वात व्यर्थं गुणनिश्चयपरिकल्पनम्; प्रामाण्यनिश्चयोत्तरकालं गुणज्ञानस्य भावात्तनिश्चयस्य प्रामाण्यनिश्चयेऽनुपयोगाच्च / इसलिए वहाँ 'तत् = वह' का उल्लेख नहीं होता है। इस प्रकार शुक्तिका में होने वाला 'इदं रजतं' ज्ञान दोनों अंश में यथार्थ है। ___ अथवा स्मरण में आये रजत की पुरोवर्ती शुक्ति के साथ जो भिन्नता है, जो भेद है, उस भेद का ग्रह यानी ज्ञान नहीं होता है, किन्तु भेदाग्रह रहता है इस लिए याद आये रजत एवं पूरोवर्ती अर्थ एकरूप में ही भासते हैं। . सारांश वहां 'इदं' पदार्थ तो है ही, एवं उससे वहां याद आता हुआ रजत भी जगत् में कहीं है ही, विशेष इतना कि मात्र पूरोवर्ती से उसकी भिन्नता का यानी उसके भेद का ज्ञान नहीं होता है इतना ही, जिससे समान विभक्ति से 'इदं रजतं' यह उल्लेख होता है। फलतः शुक्तिका में होता हुआ 'यह रजत है' यह ज्ञान भी इस प्रकार दोनों अंश में यथार्थ ही है।"-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि [संवेदनमात्र यथार्थ ही-होता है' इस मत का खण्डनः-] ('स्मृतिप्रमोषादयस्तु....) शुक्तिका में रजतभ्रम को यथार्थ सिद्ध करने का यह आपका प्रयास नियुक्तिक व लोकानुभवविरुद्ध है, शुक्तिका में होने वाले रजतज्ञान को लोक तो भ्रम यानी अयथाथ ही मानते हैं / निर्युक्तिक इसलिए कि जो आपने स्मृति-प्रमोष व रजत-भेदाग्रह का उपन्यास किया उनका आगे खण्डन किया जाने वाला है। फलतः वहां रजत स्मरण है ही नहीं, अगर होता तो 'वह रजत' इस रूप में 'वह' के उल्लेख के साथ ही स्मरण का संवेदन होता। अतः वहां अयथार्थ रजतज्ञान ही प्राप्त होने से 'सभी संवेदन यथार्थ व विशिष्ट ही संवेदन होता है' यह आपका प्रतिपादन गलत है। इस प्रकार संवेदन अप्रामाण भी होता है इसलिए संवेदनमात्र से प्रामाण्य का अनुमान नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार अनुमान से भी विज्ञान के प्रमाण्य को सिद्धि नहीं हो सकती। (किञ्च प्रत्यक्षानुमानयो........ ) यह भी एक बात है कि प्रामाण्य के निर्णय में अगर प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण को निमित्त मानेंगे, तो 'प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है' इस सिद्धान्त के व्याघात यानी भङ्ग की आपत्ति आएगी, क्योंकि विज्ञान तो उत्पन्न हो गया, वह भी स्वत: संवेद्य, किन्तु उसके प्रामाण्य का निश्चय साथ ही न होने से जब बाद में प्रत्यक्ष या अनुमान से करना है तब वहां प्रामाण्य-निर्णय स्वतः कहां रहा ? और प्रत्यक्ष अनुमान पूर्वोक्तानुसार प्रामाण्य-निश्चय कराने में पंगु है / इस लिए फलित यह होता है कि आप के मत में प्रामाण्य का निश्चय B2 अन्य निमित्त से भी नहीं हो सकता। . (यदुक्तम् नापि प्रामाण्य....) अब जो पहले आपत्ति दी गई थी कि-प्रामाण्य अन्य सापेक्ष भी नहीं है, क्योंकि अगर वह अन्य की अपेक्षा करता है तो....इत्यादि, वह तो जो हम प्रामाण्य ज्ञान को
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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