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________________ 64 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 नाप्येकदा संवादाद् गुणान् निश्चित्य अन्यदा संवादमन्तरेणापि गुणनिश्चयादेव तत्प्रभवस्य ज्ञानस्य प्रामाण्यनिश्चय इति वक्तु शक्यम् ; अत्यन्तपरोक्षेषु चक्षुरादिषु कालान्तरेऽपि निश्चितप्रामाण्यस्वकार्यदर्शनमन्तरेण गुणानुवृत्तेनिश्चेतुमशक्यत्वात् / न च क्षणक्षयिषु भावेषु गुणानुवृत्तिरेकरूपव सम्भवति, अपरापरसहकारिभेदेन भिन्नरूपत्वात् / कारणगुण सापेक्ष मानते ही नहीं है उनके प्रति व्यर्थ का उपालम्भ है / ('नह्यस्मदभ्युपगमो....') क्योंकि हमारा ऐसा मत नहीं है, कि 'प्रामाण्य-निर्णय विज्ञान के कारणगुण के ज्ञान पर आधारित है। 'कारणगुणज्ञान से प्रामाण्य निर्णीत होता है, यह हमें स्वीकार्य ही नहीं है / यह न मानने का कारण यह है कि विज्ञान के कारण के गुणों का ज्ञान इतना सहज सरल नहीं है कि वह ऐसे ही हो जाए। इसके लिये तो संवादक ज्ञान की ओर देखना पडता है, संवादक ज्ञान के बिना कारण के गुण जानना शक्य नहीं है / इसका कारण स्पष्ट है-प्रत्यक्ष-विज्ञान का कारण है इन्द्रिय और इन्द्रियों के गुण अतीन्द्रिय होते हैं, प्रत्यक्ष दृश्य नहीं / अतः वे तो तभी ज्ञात होते हैं कि जब संवादक ज्ञान हो / उदाहरणार्थ चक्षु से दूर रजत को देखा, बाद में निकट गए, वह हाथ में लिया और वह ठीक रजत ही मालुम पड़ा, यह संवादक ज्ञान हुआ / इससे अनुमान करेंगे कि हमारी चक्षु गुणयुक्त यानी निर्मल हैं वास्ते ठीक रजत को देखा / इस प्रकार चक्षु का निर्मलता गुण संवादक ज्ञान से प्रतीत हुआ। (संवादप्रत्ययात्तु") अब अगर कारण गुणों का ज्ञान संवादक ज्ञान से होना मान लें, तब तो यह आया कि संवादक ज्ञान से कारणगुणज्ञान हुआ व कारणगुण-ज्ञान से प्रामाण्य का निर्णय मानना हुआ। ऐसा मानने की अपेक्षा तो यही मानना उचित है कि प्रामाण्य.का निश्चय संवादक ज्ञान से ही सिद्ध होता है। बीच में कारणगुण के निश्चय की कल्पना करना व्यर्थ है। जब कारणगुण ज्ञान के लिये संवादक ज्ञान तक तो जाना ही पड़ता है, तो वहीं संवादक ज्ञान प्रामाण्य का निर्णय करा देगा फिर व्यर्थं कारणगुणों का ज्ञान क्यों करना ? ('प्रामाण्यनिश्चयोत्तरकालं....) अगर आप का आग्रह है कि संवादक ज्ञान से कारण गुणों का ज्ञान होता ही है, तब तो यह समझ लें कि उसका कोई उपयोग नहीं है, क्योंकि संवादक ज्ञान होते ही प्रामाण्य का निश्चय तो हो ही गया, अब इसके बाद कारणगुणों का ज्ञान होगा तो प्रामाण्यनिश्चय के पश्चाद् उत्पन्न होने वाले ऐसे कारणगुणों के ज्ञान का, प्रामाण्यनिश्चय करने में कोई उपयोग न रहा। [ एक बार गुणों का निर्णय सर्वदा उपयोगी नहीं होता] ( 'नाप्येकदा संवाद....) यहां आप कह सकते हैं कि-'कारण गुण ज्ञान का उपयोग इस प्रकार है,-एकबार संवादक ज्ञान से चक्षुनैर्मल्यादि कारणगुणों का निश्चय कर लिया, तो इससे पता चला कि कारणभूत हमारी चक्षु गुणयुक्त यानी निर्मल है / अब बाद में दूसरी बार जब किसी वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान करेंगे वहां वह कारण गुण निश्चय ही प्रामाण्य का निश्चय करा देगा, वहां प्रामाण्यनिश्चय के किसी संवादक ज्ञान की कोई अपेक्षा नहीं रहेगी।'-किन्तु ( अत्यन्तपरोक्षेषु.... ) यह आपका कथन विचारपूर्ण नहीं हैं, क्योंकि नेत्रादि इन्द्रिय अत्यन्त परोक्ष है, अतीन्द्रिय हैं, तब उनमें एक नैर्मल्यादि गुण का निर्णय कर भी लिया, तब भी कालान्तर में उन गुणों की अनुवृत्ति चलती ही रहेगी-यह निश्चय कैसे कर सकते हैं ? अतीन्द्रिय गुणों का निर्णय प्रत्यक्ष रूप से तो होता नहीं, अतः जब भी वह कारणगुण
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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