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________________ 228 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अथ पर्वतप्रदेशाश्रिताग्नितद्धमव्यक्तेरुत्तरकालभाविप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वेन न महानसोपलब्धधूमव्यक्त्याऽत्यन्तवैलक्षण्यमिति नोभयगतसामान्याभावः / ननु उभयगतसामान्यप्रतिपत्तौ ततोऽनुमानप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तौ च तदर्थक्रियार्थिनः तत्र प्रवर्त्तमानस्य प्रत्यक्षप्रवृत्तिः, तस्यां च सत्यामत्यन्तवलक्षण्याभावस्तद्वयक्तेः, तत्सद्भावे चोभयगतसामान्यसिद्धितः तदनुमानप्रवृत्तिरिति चक्रकदूषणावकाशः / अथ कण्ठक्षीणतादिलक्षणधर्मकलापसाधान्न महानस-पर्वतप्रदेशसंगतधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्यमित्युभयगतसामान्यसिद्धौ न धूमानुमाने हेत्वसिद्धतादिदोषः, तहि वाच्याविसंवादादिधर्मकलापसाधर्म्यस्य वचनविशेषव्यक्तिद्वयेऽप्यत्यन्तवलक्षण्यनिवर्तकस्य सद्भावेन कथं न तद्विशेषत्वसामान्यसंभव: ? प्रमेयत्वं तु यथा प्रकृतसाध्ये हेतुर्भवति तथा प्रतिपादयिष्यामः, प्रास्तां तावत् / करेंगे तो वह पक्ष में न रहने से असिद्धता नाम का हेतु दोष होगा। अब यदि उभयसाधारण धूम सामान्य को हेतु करेंगे तो उसकी कल्पना निम्नोक्त हेतु से असंभवग्रस्त होने से हेतु की अप्रसिद्धि का दोष तदवस्थ ही रहेगा / तथाविध धूम सामान्य की कल्पना इस लिये संभव नहीं है कि-गोत्व जैसे गो और अश्व जैसे विलक्षण व्यक्तिद्वय का आश्रित नहीं होने से तदुभय का सामान्य नहीं हो सकता, उसी प्रकार-पाकशालीय अग्निप्रदेश प्रत्यक्ष होता है और पर्वत का अग्निप्रदेश अप्रत्यक्ष होता है तो इस प्रकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष ऐसे विलक्षण व्यक्ति द्वय में कोई सामान्य धूम की कल्पना भी अनुचित है / [धूम सामान्य की कल्पना में चक्रक दूषण प्राप्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'पर्वत में अग्निप्रदेश अनुमान के पहले भले अप्रत्यक्ष है किन्तु अनुमान के उत्तरकाल में जब अग्नि का अर्थी वहाँ जाता है तो उसे वह अग्निप्रदेश और धूमव्यक्ति की प्रत्यक्ष प्रतीति होती है अतः पाकशालान्तर्गत धूमव्यक्ति और पर्वतीय धूम व्यक्ति में कोई वैलक्षण्य न रहने से पर्वत-पाकशाला उभय साधारण धूम सामान्य की कल्पना का असंभव नहीं है तो यहाँ चक्रक दूषण का अवतार होगा, जैसे देखिये-यह तो निश्चित है कि उभयगतधूमसामान्य का अवगम होने पर ही उससे अग्नि का अनुमान प्रवृत्त होगा, अब अनुमान प्रवृत्त होने पर अग्नि साध्य अर्थक्रिया का अर्थी वहाँ जायेगा और उसके अग्निप्रत्यक्ष की प्रवृत्ति होगी। यह प्रत्यक्ष होने पर दोनों धूम व्यक्ति अत्यन्तविलक्षण नहीं है यह पता चलेगा, वैलक्षण्य का अभाव सिद्ध होने पर उभय साधारण धूमसामान्य की सिद्धि होगी। तब अंत में अनुमान की प्रवृत्ति होगी। यह एक चक्रभ्रमण हुआ, इस प्रकार फिर से चक्रभ्रमण चालु होगा। यदि इस प्रकार धूम सामान्य की सिद्धि की जाय कि पाकशाला और पर्वत उभयान्तर्गत जो धूम द्वय है उन में, कंट यानी अग्रभाग में क्षीणता यानी क्रमश. मूल से लेकर ऊर्ध्व ऊर्ध्व भाग में क्षीण होते जाना इत्यादि समानधर्मसमूह उभयसाधारण होने से अत्यन्त विभिन्नता नहीं है, अतः समान धर्मसमूह से उभयगत सामान्य सिद्ध हो जाने पर धूमहेतुक अनुमान में हेतु की असिद्धता आदि कोई दोष नहीं है-तो वचनविशेषत्व को भी सामान्य रूप से हेतु किया जा सकता है अर्थात् यह कहा जा सकता है कि दृष्टान्त में और साध्यधर्मी में जो वचन विशेष हैं, उनमें अपने प्रतिपाद्य अर्थ के साथ अविसंवाद आदि समान धर्मसमह जो अत्यन्त विभिन्नता का निवर्तक है-वह विद्यमान है तो वचनविशेषत्व रूप सामान्य को हेतु क्यों न किया जाय ? (प्रस्तुत में तो प्रमेयत्व हेतु की बात चलती है तो इसके लिये कहते हैं कि) सकलज्ञेयपदार्थ में प्रत्यक्षत्व की सिद्धि के लिये प्रमेयत्व सामान्य को हेतु किया जा सकता है यह बात अग्रिम ग्रन्थ में दिखायेंगे / यहाँ कुछ धीरज रखीये /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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