________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 227 तथा 'प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानम्'....इत्यादि....यदुक्तं तद् धूमलक्षणेऽपि हेतो समानम् / तथाहि-अत्रापि कि साध्यमिधर्मो हेतुत्वेनोपात्तः, उत दृष्टान्तमिधर्मः, अथोभयगत सामान्यं ? तत्र यदि साध्यमिधर्मों हेतुः स दृष्टान्तर्धामणि नान्वेतीत्यनन्वयो हेतुदोषः। अथ दृष्टान्तधमिधर्मः, स साध्यमिण्यसिद्धः इत्यसिद्धता हेतुदोषः / अथोभयगतं सामान्यं, तदपि प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षमहानंसपर्वतप्रदेशविलक्षणव्यक्तिद्वयाश्रितं न संभवतीति हेतोरसिद्धता तदवस्थिता। क्योंकि वचनविशेषत्वरूप निर्दोष हेतु सर्वज्ञ का साधक है, यह आगे दिखाया जाने वाला है / और भी जो आपने कहा है-"सभी पदार्थ किसी पुरुष को प्रत्यक्ष है क्योंकि वे सब प्रमेयरूप हैं, जैसे अग्नि आदिइस सर्वज्ञ साधक अनुमान में अगर सकंलपदार्थग्राहकप्रत्यक्षत्व साध्यरूप से अभिमत है या तद् तद् विषय का ग्राहक अनेक ज्ञान प्रत्यक्षशब्द से अभिमत है ?"....इत्यादि, और इनमें से आद्यविकल्प का जो बाद में खण्डन किया गया है कि "यदि सकलपदार्थग्राहक प्रत्यक्ष साध्य करेंगे तो हेतु में विरोध और दृष्टान्त में साध्य की असिद्धि ये दोष लगेंगे" इत्यादि....यह सब असंगत है, क्योंकि साध्य के ऊपर इस प्रकार के विकल्प करते रहने पर तो धूम हेतुक अनुमान से अग्नि भी सिद्ध नहीं हो सकेगा। जैसे देखिये, अग्नि के अनुमान में भी यह कहा जा सकता है-यदि किसी अमक ही पर्वतान्तर्गत अग्नि का साध्यधर्मी पर्वत में साध्यधर्मरूप से उपन्यास किया जाय तो दृष्टान्तरूप पाकशाला धर्मी में पर्वतीयअग्नि का विरोधी जो पाकशालीय अग्निरूप दृष्टान्तधर्मी का धर्म, उसके साथ ही जिसकी व्याप्ति प्रसिद्ध है ऐसा पाकशालान्तर्गत धूम, पर्वत में असिद्ध है इतना ही नहीं विरुद्ध भी है और पाकशाला में पर्वतीय अग्निरूप साध्य का अभाव होने से दृष्टान्त भी साध्यशन्य है ये दोष समानरूप से आयंगे / आशय यह है कि जब प्रतिनियत पर्वतीय अग्नि को ही साध्य किया जाता है तब पाकशालादि दृष्टान्तधर्मी में उसका सद्भाव नहीं होता / तथा पर्वतीय अग्नि के साथ धूमव्याप्ति सिद्ध भी नहीं रहती, किन्तु उसके विरोधी पाकशालान्तर्गत अग्नि की ही पाकशालीय धूम में व्याप्ति सिद्ध रहती है अतः पाकशालीय धूम का यदि हेतुरूप से उपन्यास हो तो वह पर्वतरूप साध्यधर्मी में पर्वतीयाग्निविरोधी पाकशालीयाग्नि का साधक होने से विरोध दोष अनिवार्य होगा। ___ यदि दृष्टान्त धर्मी पाकशालादि अन्तर्गत अग्नि को पर्वत में सिद्ध करने की चेष्टा की जाय तो प्रत्यक्षादि से उसका सीधा ही बाध यानी विरोध होगा। तथा यदि साध्यधर्मी और दृष्टान्तधर्मी उभय साधारण अग्निसामान्य को साध्य किया जाय तो सिद्धसाधन दोष होगा क्योंकि वह प्रतिवादी को इष्ट ही है। इस प्रकार अग्नि के अनुमान में भी सब दोष समान हैं। [प्रमेयत्वहेतुवत् धूमहेतु में भी समान विकल्प] तदुपरांत प्रमेयत्वहेतुक अनुमान में आपने जो ये तीन विकल्प किये थे-हेतुरूप में उपन्यास किये जाने वाला प्रमेयत्व क्या सकलज्ञेयव्यापक प्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिरूप लेते हैं....इत्यादि....वह सब धूमहेतु में भी समान है, जैसे देखिये-अग्नि के अनुभान में क्या आप साध्यधर्मी पर्वत के धर्मभूत धूम को हेतु करते हैं ? या पाकशालारूप दृष्टान्तधर्मी के धर्मभूत धूम को ? अथवा उभयसाधारण धूमसामान्य को ? यदि प्रथम विकल्प में, पर्वतीयधूम को हेतु करेंगे तो दृष्टान्तधर्मी पाकशाला में उसका अन्वय न होने से अनन्वय नाम का हेतु दोष प्रसक्त होगा / यदि पाकशाला के धूम को हेतु