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________________ प्रथमखण्ड-का० १-सर्वज्ञवाद: 277 न ततस्तत्र तत्प्रतिपत्तिः स्यात् , दृष्टान्तमिण्येव तेन तस्य व्याप्तत्वात् , बहिर्व्याप्तविद्यमानाया अपि साध्यमिणि साध्यप्रतिपत्तावनुपयोगात् सादृश्यमात्रस्याकिंचित्करत्वात् , अन्यथा 'शुक्लं सुवर्णम् / सत्त्वाव-रजतवत्' इत्यत्रापि शुक्लत्वप्रतिपत्तिः स्यात् / अथात्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधनम् , प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानंतरप्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं वा दोषः। तदयुक्तम्-बाधाऽविनाभावयोविरोधात / तथाहि-सत्येव साध्यमिणि साध्ये हेतुवर्तत इति तस्य तदविनाभावः, तत्प्रतिपादितसाध्यधर्माभावश्च प्रमाणतो बाधा, साध्यधर्मभावाऽभावयोश्चकत्र धर्मिण्येकदा विरोध इति नैतहोषादस्य साधनस्य दुष्टत्वं किन्तु साध्यमिणि साध्यधर्माऽविनाभूतत्वेनाऽनिश्चयः / अतो दृष्टान्तमणि प्रवृत्तेन प्रमाणेन व्याप्त्या हेतोः स्वसाध्याऽविनाभावो निश्चेयः। निश्चिताऽविनाभावो यत्र मिण्यपलभ्यते तत्र स्वसाध्यमविद्यमानप्रमाणान्तरबाधनं निश्चाययति, यथाव सर्वज्ञमात्रलक्षणे साध्ये वचनविशेषलक्षणे साध्यमिणि तद्विशेषत्वलक्षणो हेतुः। प्रतिबन्धप्रसाधकं चास्य हेतोः प्रागेव दृष्टान्तमणि प्रमाण प्रदशितमित्यभिप्रायवतैवाचार्येणापि 'कुसमयविसासणं' इति सूत्रे 'कुः' इत्यनेन दृष्टान्तसूचनं विहितम् , न च पक्षवचनाद्युपक्षेपः सूचितः। [ व्याप्ति का ग्रहण साध्यधर्मी और दृष्टान्तधर्मी में ] __ जहाँ किसी की दृष्टान्तरूप से संभावना ही नहीं है जैसे कि 'सभी वस्तु अनेकान्तमय है क्योंकि सत् हैं' इत्यादि प्रयोग में, यहाँ जो व्याप्तिसाधक प्रमाण प्रवृत्त होता है वह तर्करूप होता है और वह साध्यधर्मी में ही 'जो कुछ सत् होगा वह अनेकान्तरूप ही हो सकता है, अन्यथा वह 'सत्'रूप नहीं हो सकता' इस प्रकार सभी साध्य और हेतु के उल्लेख से प्रवृत्त हो कर सत्त्व की अनेकान्तात्मकत्व के साथ व्याप्ति सिद्ध कर देता है इसीको अन्तर्व्याप्ति कहा जाता है। जहाँ दृष्टान्तधर्मी की भी विद्यमानता है जैसे कि वचनविशेषत्व हेतू स्थल में हम लोगों का पथ्वी में कटिनतादि प्रतिपादक वचन, वहाँ साध्य धर्मी एवं दृष्टान्तमि दोनों में प्रवर्त्तमान तर्कादि प्रमाण सर्व हेतु-साध्य के उल्लेख से व्याप्ति का प्रसाधक होता है-यह मानना चाहिये / ऐसा न मानकर केवल दृष्टान्त में ही उस प्रमाण की प्रवृत्ति .मानेंगे तो दृष्टान्तधर्मी में अभिमत साध्य के साथ हेतु की व्याप्ति सिद्ध होने पर भी साध्यधर्मी में हेतु की व्याप्ति सिद्ध न होने से पक्ष में उस हेतु से साध्यसिद्धि न हो सकेगी। क्योंकि हेतु केवल दृष्टान्तधर्मी में ही अपने साध्य के साथ व्याप्तिवाला सिद्ध हुआ है / केवल दृष्टान्त में ही गृहीत होने वाली व्याप्ति बहिर्व्याप्तिरूप होने से दृष्टान्त में वह विद्यमान होने पर भी साध्यधर्मी पक्ष में साध्य ग्रहण के लिये उसका कोई उपयोग नहीं है / ऐसा नहीं है कि केवल दृष्टान्त की सदृशता से ही पक्ष में साध्य सिद्धि हो जाय। केवल सादृश्य को अकिंचित्कर न मानेंगे तो "सवर्ण सफेद है क्योंकि है जैसे कि रजत" इस परार्थानुमान प्रयोग से स्वर्ण में भी सत्त्व के सादृश्यमात्र से सपे.दाई का अनुमान प्रमाणभूत हो जायेगा। [ पक्षवाध और कालात्ययापदिष्टता का निरसन ] यदि ऐसा कहा जाय-सफेदाई का सुवर्णरूप पक्ष में प्रत्यक्ष से बाध है अर्थात् पक्ष प्रत्यक्ष बाधित है / अथवा प्रत्यक्ष से बाधित साध्य के निर्देश करने के बाद सत्त्व हेतु का प्रयोग करने से हेतु कालात्ययापदिष्ट दोष वाला है ।-तो यह अयुक्त है। क्योंकि साध्य का बाध और साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव परस्पर विरुद्ध है / जैसे देखिये-साध्य के साथ हेतु के अविनाभाव का अर्थ है 'साध्य के
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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