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________________ 278 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ननु भवत्वस्माद्धेतोर्यथोक्तप्रकारेण सर्वज्ञमात्रसिद्धिर्न पुनस्तद्विशेषसिद्धिः / तथाहि-यथा नष्टमुष्टयादिविषयवचनविशेषस्याहतसर्वज्ञप्रणीतत्वं वचनविशेषत्वात् सिद्धचति तथा बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्वमपि तत एव सेत्स्यतीति कुतस्तद्विशेषसिद्धिः ? न च नष्ट-मुष्ट्यादिप्रतिपादको वचनविशेषोऽहंच्छासन एवेति वक्तुयुक्तम् , बुद्धशासनादिष्वपि तस्योपलम्भादित्याशंक्याह सूरिः-'सिद्धत्थाणं' इति / अस्यायमभिप्रायः-प्रत्यक्षाऽनुमानादिप्रमाणविषयत्वेन प्रतिपादिताःशासनेन ये ते तद्विषयत्वेनैव होने पर ही हेतु की सत्ता का होना', और बाध का अर्थ है-पक्ष में प्रतिपादित साध्यधर्म का अभाव होना / अविनाभाव में 'साध्य के होने पर' इस प्रकार साध्य का सद्भाव सूचित होता है और बाध म साध्याभाव सूचित होता है-अतः बाध और अविनाभाव परस्पर विरुद्ध है / अतः सादृश्यमात्र मूलक विनाभाव मानने पर बाध दोष अकिंचित्कर बन जाता है। अर्थात् , साध्यधर्म का सद्भाव और उसका अभाव एक धर्मी में समान काल में परस्पर विरुद्ध होने से बाध दोष से सादृश्यमूलक अविनाभाववाले प्रकृत साधन को दूषित नहीं माना जा सकता। केवल इतना होगा कि साध्यमि में सत्त्व हेतु का शुक्लत्व के साथ अविनाभावित्व का निर्णय प्रतिबद्ध हो जायेगा / अब यह सोचिये कि अगर केवल बहिर्व्याप्तिमात्र से ही हेतु को साध्य का साधक मान लिया। अग्नि के साथ अविनाभावित्व का निर्णय भी प्रतिबद्ध हो जायेगा क्योंकि वहाँ भी प्रत्यक्ष से धूमाभाव दृष्ट है / अतः इस प्रकार कहीं भी केवल बहिर्व्याप्ति मानने पर अनुमान से साध्य का निश्चय न हो सकेगा। इससे इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिये कि दृष्टान्तमि में प्रवृत्त प्रमाण से भी व्यापकरूप से सकल हेतु साध्य के उपसंहार से हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित होना चाहिये। व्यापकरूप से जिस हेतु में अविनाभाव निश्चित किया गया है, वैसा हेतु किसी भी धर्मी में उपलब्ध होगा वहां अन्य प्रमाण के बाध को हठाकर अपने साध्य का निर्णय करा देगा। जैसे कि यहाँ प्रस्तुत में सर्वज्ञमात्र सिद्ध करना है तो वचनविशेषस्वरूप साध्यधर्मी में वचनविशेषरूप हेतु प्रयुक्त है। वचनविशेषत्वरूप हेतु की साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वरूप साध्य के साथ व्याप्ति को सिद्ध करने वाला प्रमाण तो पहले ही हम लोगों के पृथ्वीकठीनताप्रतिपादकवचनरूप दृष्टान्तधर्मी में दिखा दिया हैइस अभिप्राय रखने वाले आचार्य 'कुसमयविसासणं' इस सूत्रावयव में 'कु' शब्द से पृथ्वी का दृष्टान्तरूप से सूचन कर चुके हैं। पक्षादि के वचन प्रयोग का उपयोग न होने से उसका सूचन नहीं किया। [अर्हत् भगवान् ही सर्वज्ञ कैसे ?-शंका ] ___ यदि यह शंका हो-'वचन विशेषत्व हेतु से पूर्वोक्त कथनानुसार सामान्यतः सर्वज्ञ की सिद्धि तो हो सकती है किन्तु व्यक्तिगतरूप से आपके इष्टदेवस्वरूप अर्हत् भगवान् ही सर्वज्ञ हैं, दूसरे बुद्धादि नहीं-ऐसा सिद्ध नहीं होता। जैसे देखिये-आप जैसे वचनविशेषत्वरूप हेतु से नष्ट-मुष्टि आदि विषयक वचनविशेष में अर्हत् सर्वज्ञ प्रतिपादितत्व सिद्ध करते हैं वैसे ही वचन विशेषत्व हेतु से बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्व भी सिद्ध हो सकेगा, तो विशेषरूप से अमुक ही पुरुषविशेष सर्वज्ञतया आप सिद्ध करना चाहते हैं वह कैसे होगा? यह नहीं कह सकते कि-यत: नष्ट -मुष्टि आदि ज्ञापक वचनविशेष अर्हत् शासन में ही उपलब्ध होता है अत एव अर्हत् भगवान् की सर्वज्ञतया सिद्धि होगी-ऐसा इसलिये नहीं कह सकते कि बुद्धादिशासन में भी नष्ट-मुष्टि आदि ज्ञापक वचन विशेष उपलब्ध होता है ।'-तो इस आशंका को दूर करने के लिये सूत्रकार सूरिदेव ने प्रथम गाथासूत्र में 'सिद्धत्थाणं ऐसा कहा है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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