________________ 150 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यंजकेनापि शक्तिप्रतिबन्धापनयनद्वारेण विज्ञानजननशक्त्याविर्भावन वर्णस्वरूपमेवाविर्भावितं भवतीति कथं न वर्णस्य व्यंजकजन्यत्वम् ? व्यंजकावाप्तविज्ञानजननस्वरूपो वर्णो यदि तेनैव स्वरूपेणावतिष्ठते तदा सर्वदा तदवभासिज्ञानप्रसंगः, सर्वदा तज्जननस्वभावस्य भावात् , 'सहकार्यपेक्षा च नित्यस्य न भवति' इति प्रतिपादयिष्यामः। अजनने वा न तत्स्वभावतेति प्रथममाप ज्ञान न यो हि यन्न जनयति न स तज्जननस्वभावः यथा शालिबी यवांकुरमजनयन्न तज्जननस्वभावम् / न जनयति च वर्णो व्यंजकाभिमतवाय्वभिव्यक्तोऽपि सर्वदा स्वप्रतिभासिज्ञानमिति न सर्वदा तज्जननस्वभावः / तत्स्वभावाभावे चोत्तरकालं तदेवाऽनित्यत्वमिति व्यर्थमभिव्यक्तिकल्पनम् / ___ अपि च, वर्णाभिव्यक्तिपक्षे कोष्ठ्येन वायुना यावद्वेगमभिसर्पता यावान् वर्णविभागोऽपनीतावरणः कृतस्तावत एव श्रवणं स्यात् न समस्तस्य वर्णस्येति खंडशस्तस्य प्रतिपत्तिः स्यात् / अथ वर्णस्य इस प्रकार का षष्ठी विभक्ति से प्रतिपाद्य सम्बन्ध घटित नहीं होगा। यदि भिन्न शक्ति से वर्ण का कुछ उपकार माना जाय तो उपकार करने वाली शक्ति में उपकारानुकूल अन्य शक्ति माननी पड़ेगी, ये दोनों शक्तियों में एकान्त भेद होने पर नयी नयी शक्ति की कल्पना का अन्त ही नहीं आयेगा। भेद न मान कर अभेद माने तो प्रथम शक्ति को ही वर्ण से किंचिद् अभिन्न मानना होगा जिससे अनवस्था आपादक परम्परा मानने का व्यर्थ परिश्रम न करना पडे / फलित यह हुआ कि आवारक वायु से जिस शक्ति का प्रतिघात किया जाता है वह शक्ति अपने आश्रय वर्ण से यदि किंचिद् अभिन्न मानते हैं तो शक्ति के प्रतिघात से अब तदभिन्न वर्ण स्वरूप का भी कुछ प्रतिघात यानी नाश सिद्ध हो गया तो फिर वर्ण में अनित्यता का प्रसंग क्यों नहीं होगा ? [व्यंजक वायु से वर्णस्वरूप का आविर्भाव-जन्म ] यह भी सोचिये कि जब विज्ञानोत्पादन शक्ति के प्रतिबन्ध को दूर करने द्वारा व्यंजक से जब विज्ञानजननशक्ति का आविर्भाव किया जाता है तो उससे तिरोभूत वर्णस्वरूप का ही आविर्भाव हुआ तो फिर व्यंजक से वर्णस्वरूप का आविर्भाव यानी दूसरे शब्दों में जन्म ही हआ यह क्यों न माने ? नाश भी इस प्रकार मानना होगा--व्यंजक सांनिध्य में वर्ण को विज्ञानजनन स्वरूप एक बार प्राप्त हो जाने के बाद वह वर्ण यदि उसी स्वरूप में सदा अवस्थित रहेगा तो सतत उस वर्ण का अवभास होता ही रहेगा / कारण, विज्ञानजननस्वभाव सार्वदिक हो गया है। 'सहकारी कदाचित् अनुपस्थित रहने के कारण सततावभास का प्रसङ्ग नहीं होगा' यह नहीं कह सकते क्योंकि 'नित्य पदार्थ को कभी सहकारी की अपेक्षा नहीं रहती' यह आगे दिखाया जायेगा। इसलिये सततावभासापादक 'उस स्वरूप से वर्ण की अवस्थिति' को नहीं मान सकेंगे तब उस स्वरूप से वर्ण का नाश नहीं मानोगे तो कहाँ जाओगे? व्यंजक के रहने पर भी यदि वर्ण को विज्ञान जननस्वभाव नहीं मानेंगे तो प्रथम ज्ञान की भी उत्पत्ति न हो सकेगी। यह नियम है कि 'जो जिसको उत्पन्न नहीं करता वह तज्जननस्वभाव नहीं होता। जैसे शालिबीज जव के अंकुर को उत्पन्न नहीं करता तो शालिबीज जवांकुरजननस्वभाव भी नहीं होता। व्यंजकत्वेन अभिमत वायू से अभिव्यक्त वर्ण भी यदि सर्वदा स्वावभासी ज्ञान उत्पन्न नहीं करता तो वह भी ज्ञानजननस्वभाव नहीं हो सकता। ज्ञानजननस्वभाव न होने पर उत्तरकाल में वह अवश्य तद्रूप से नहीं रहेगा तो वर्ण का अनित्यव ही फलित हुआ यानी अभिव्यक्ति की कल्पना व्यर्थ हुयी।