________________ प्रथमखण्ड-का० १-वेदापौरुषेय० 177 अथ मतं-“यत्र सिद्धकर्तृ केषु भावेष्वस्मर्यमाणकर्तकत्वं तत्र कर्तुः स्मरणयोग्यता नास्तीति निविशेषणस्यानैकान्तिकत्वं, वैदिकानां तु रचनानां सति पौरुषेयत्वेऽवश्यं पुरुषस्य कर्तुः तदर्थानुष्ठानसमयेऽनुष्ठातृणां स्मरणं स्यात् / ते हि अदृष्टफलेषु कर्मस्वेवं निविचिकत्साः प्रवर्त्तन्ते यदि तेषां तद्विषयः सत्यत्वनिश्चयः, तस्याप्येवम्भावो यदि तदुपदेष्टुः स्मरणम् , यथा पित्रादिप्रामाण्यवशात् स्वयमदृष्टफलेष्वपि कर्मसु तदुपदेशात् प्रवर्तन्ते 'पित्रादिभिरेतदुपदिष्टं तेनाऽनुष्ठीयते' / एवं वैदिकेष्वपि कर्मस्वनुष्ठीयमानेषु तत्र स्मरणं स्यात् / न चाभियुक्तानामपि वेदार्थानुष्ठातणां त्रैवणिकानां कर्तः स्मरणमस्ति, अतः स्मरणयोग्यस्य कर्तु रस्मरणात अपौरुषेयो वेदः / एवं चायं हेत्वर्थः-कर्तुः स्मरणयोग्यत्वेऽपि सति अस्मर्यमाणकर्त कत्वात् अपौरुषेयो वेदः / न चैवंविधस्य हेतोः सिद्धकर्त केषु भावेषु वृत्तिः, अतो नानैकान्तिकः / यत्र पौरुषेयत्वं तत्र सविशेषणो हेतुः न संभवतीति विरुद्धत्वमपि न विद्यते, विपक्षे वर्तमान: सपक्षेऽसन् विरुद्ध उच्यते, अस्य तु सविशेषणस्य प्रसिद्धपौरुषेये वस्तुन्यप्रवृत्तिः, नापि सपक्षे आकाशादावसत्त्वम् , अतःपरिशुद्धान्वयव्यतिरेकहेतुसद्भावात् कर्तृ स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृकत्वादपौरुषेयो वेदः सिध्यति / " __ अपौरुषेयवादीः-हम अनुपलम्भविशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व हेतु का यदि प्रयोग करें तब तो आपके कथनानुसार हेतु की असिद्धता और अनैकान्तिकता ये दो दोष प्रसक्त हो सकते हैं। किन्तु हम कर्ता के अनुपलम्भ से विशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व को हेतु ही नहीं बनाते, हम तो कर्ता के अभाव से विशिष्ट अस्मर्यमाणकर्तृकत्व को हेतु बनाते हैं। आशय यह है कि वेद कर्ता का अभाव है एवं उसके कर्ता का किसी को भी अनुभव मूलक स्मरण नहीं है इस लिये वेद अपौरुषेय मानते हैं / उत्तरपक्षी:-हेतु का विशेषण कर्तृ-अभाव क्या अन्य कोई प्रमाण से सिद्ध है ? यदि सिद्ध है तब तो उसी से इष्ट सिद्धि हो गयी, प्रस्तुत अनुमान तो व्यर्थ हुआ। किन्तु 'कर्ता के अभाव का साधक वैसा कोई अन्य प्रमाण है ही नहीं' यह तो कह दिया है। यदि इसी अनुमान से कर्तृ-अभाव रूप विशेषण की सिद्धि मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष लगेगा, जैसे-प्रस्तुत अनुमान से कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) सिद्ध होगा। और प्रस्तुत अनुमान से कर्ता का अभाव सिद्ध होने पर तद्विशिष्टअस्मैर्यमाणकर्तृ कत्व रूप हेतु की सिद्धि होगी और विशिष्ट हेतु सिद्ध होने पर प्रस्तुतानुमान से कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) सिद्ध होगा अतः हेतुसिद्धिमूलक अनुमान और कर्ता का अभाव (रूप विशेषण) इन दोनों के बीच अन्योन्याश्रय दोष हुआ। इस प्रकार अभावपूर्वकत्वविशेषण विशिष्ट हेतु में भी असिद्धि दोष तदवस्थ ही रहता है / . [कत स्मरणयोग्यत्वविशिष्ट हेतु निदोष होने की आशंका ] अब अपौरुषेयवादी अपना मन्तव्य विस्तार से प्रस्तुत करता है - परिस्थिति ऐसी है कि जिन पदार्थों का कर्त्ता सिद्ध है फिर भी उनमें अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व रह जाता है, वहाँ तो उनके कर्ता स्मरणयोग्य ही नहीं होता है इसलिये स्मरणयोग्यताविशेषणरहित केवल अस्मर्यमाणकर्तकत्व को हेतु बनावें तो अनैकान्तिक अवश्यक होगा ही। [ तात्पर्य, स्मरणयोग्यत्वे सति अस्मर्यमाणकर्तृ कत्व हमें हेतु रूप से अभिप्रेत है / यह सविशेषण हेतु का सिद्धकर्तृक भावों में विशेषणाभावप्रयुक्त अभाव होने से अनैकान्तिक दोष नहीं रहेगा।] वैदिक रचनाओं की स्थिति कुछ भिन्न है-वैदिक रचनाएँ यदि पौरुषेय होती तो तदुक्त अर्थ के अनुष्ठानकाल में अनुष्ठाताओं को उस कर्ता पुरुष