________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवादः 327 तदप्यसंगतम् यतो भवतु जैमिनीयानां "सत्संप्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बद्धिजन्म प्रत्यक्षम्" [ जैमि० अ० 1-1-4 ] इतिलक्षणलक्षितेन्द्रियप्रत्यक्षवादिनाम् 'अहम्' इत्यवभासप्रत्ययस्यानिन्द्रियजत्वेनात्राऽप्रत्यक्षत्वदोषो, नास्माकं जिनमतानुसारिणाम् / न ह्यस्माकमिन्द्रियजमेव प्रत्यक्षं किन्तु यद् यत्र विशद उत्तर:-इसलिये कि 'मेरा यह शरीर' इस प्रकार शरीर में 'यह' बुद्धि होती है किंतु 'मेरा यह आत्मा' ऐसी बुद्धि नहीं होती / अत: बोधकर्ता देह से भिन्न है / प्रश्नः-क्या 'मेरा यह आत्मा' ऐसी बुद्धि नहीं होती ? उत्तरः-हम कहते हैं नहीं होती। प्रश्न -तो क्यों ऐसा कहा जाता है 'यह मेरा आत्मा' ? उत्तरः-वह तो केवल अर्थशून्य ( वासना जनित ) शब्दोच्चार मात्र है, प्रतीति उस प्रकार को नहीं होती। 'अहं' प्रतीति में सर्व लोग साक्षि होने से उसका निषेध नहीं होता-यहाँ से आरम्भ कर नास्तिक ने आत्मवादी की ओर से आत्मा की सिद्धि करवायी. अब यहाँ आकर वह कहता है कि जैसे 'मेरा यह आत्मा' इस स्थल में आत्मवादी प्रतीति नहीं किंतु शब्दोच्चार मात्र मानते हैं, तो 'मेरा यह शरीर' इस स्थल में भी 'मेरा' ऐसी बुद्धि का उपलम्भ नहीं होता केवल शब्दोच्चार मात्र होता हैऐसा कहने वाले का मुह कैसे बन्द किया जा सकता है / यदि यह पूछा जाय कि-'मैं सुखी हूँ' ऐसी प्रतीति होती है, तो क्या आप शरीर में सुखादि का योग मानते हैं ?-तो उत्तर यह है कि हम शरीर में सुखादि का योग नहीं मानते हैं, अत एव 'मैं सुखी हूँ' इस बुद्धि को मिथ्या (भ्रम) मानते हैं, सुखादि शरीरविषयक बुद्धि का विषय नहीं हो सकता। इतनी चर्चा से यह सिद्ध होता है कि-बोधकर्ता के रूप में आत्मा का कोई प्रतिभास दृष्ट नहीं है, यदि बोधकर्ता के रूप में किसी का प्रतिभास होता है तो वहाँ शरीर ही बोधकर्ता के रूप में भासित होता है, अत: देह से अन्य कोई भी अहमाकार प्रतीति का विषय नहीं है। उपरांत, सुख-दुखादि का योग जैसे शरीर में नहीं है उसे बुद्धि का भी शरीर के साथ योग न होने से बोधकर्ता के रूप में यद्यपि देह का प्रतिभास होता है किन्तु वह भी मिथ्या ही है। तात्पर्य, देह में बोधकर्तृत्व मिथ्याप्रतीति का ही विषय है, यही प्रमाणसिद्ध है / निष्कर्ष:-चैतन्य यदि देहधर्म नहीं मानेंगे तो और कोई ज्ञाता प्रत्यक्षप्रमाण के विषय रूप में सिद्ध नहीं है। [प्रत्यक्ष केवल इन्द्रिय जन्य ही नहीं होता-जैन मत ] 'यदप्यत्राहुः अस्त्ययमवभासः'....इत्यादि से पूर्वपक्षी ने जो पूर्वपक्ष अद्यावधि स्थापित किया उसके खिलाफ व्याख्याकार कहते हैं कि-यह सब असंबद्ध है। क्योंकि 'सत्संप्रयोगे'........अर्थात् 'पुरुष की इन्द्रियों के साथ सद् वस्तु का संनिकर्ष होने पर जन्म लेने वाली बुद्धि प्रत्यक्ष है' इस प्रकार के लक्षण से लक्षित ही इन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष को मानने वाले जैमिनीमतानुयायी मीमांसकों के मत में अहमाकार प्रतीति में प्रत्यक्षत्व की अनुपपत्ति का दोष लग सकता है, क्योंकि सत्संप्रयोगे........यह हमारा जैन