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________________ 194 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 व्यतिरेकनिश्चायकत्वेनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात् / किन्तु, विपर्यये तद्बाधकप्रमाणनिमित्तः, तच्च बाधकं प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृत्तः प्रागेवानुपपद्यमानस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम् , अन्यथाऽर्थापत्त्या तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत् तस्यान्यथानुपपद्यमानत्वं नावगतं न तावदापत्तिप्रवृत्तिः। अत एव यदुक्तम्-[ श्लो० वा० सू० ५-अर्थापत्ति० 30-33 ] अविनामाविता चात्र तदैव परिगृह्यते / न प्रागवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् // तेन सम्बन्धवेलायां सम्बन्ध्यन्यतरो ध्रुवम् / अर्थापत्त्येव मन्तव्यः पश्चादस्त्वनुमानता // इत्यादि, तन्निरस्तम् , एवमभ्युपगमेश्र्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादितत्वात् / स च तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दृष्टान्तर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः, आहोस्थित स्वसाध्यमिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्य इति ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किं तत् दृष्टान्तर्धामणि प्रवृत्तं प्रमाणं साध्यमिण्यपि साध्याऽन्यथानुपपन्नत्वं तस्यार्थस्य निश्चाययति, आहोस्वित् दृष्टान्तधर्मिण्येव ? तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽर्थापत्त्युत्थापकस्याऽर्थस्य लिंगस्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापार प्रति न कश्चिद विशेषः / अथ द्वितीयः. स न यक्तः, न हि दृष्टान्तमणि निश्चितस्वसाध्यान्यथाऽनुपप .. [विपक्षबाधकप्रमाण से अन्यथानुपपत्ति का बोध ] अर्थापत्ति के प्रस्ताव में, अर्थ की अन्यथानुपपत्ति का बोध आवश्यक है यह निश्चित हुआ, अब वह किस निमित्त से होगा यह सोचिये-सपक्ष में बार बार कल्पनीय अदृष्ट अर्थ का उस अर्थ के साथ साहचर्य निमित्त नहीं है, क्योंकि पार्थिवत्व और लोहलेख्यत्व का काष्ठादि में अनेकशः होने पर भी पार्थिवत्व हेतु से वज्र में लोहलेख्यत्वरूप साध्य की सिद्धि नहीं होती। यदि केवल अनेकशः सहचारदर्शन मात्र निमित्त होता तब तो वज्र में भी लोहलेख्यत्व की सिद्धि होने की आपत्ति होती। 'विपक्ष में अदर्शन' यह भी अन्यथानुपत्तिगमक नहीं है, कारण-विपक्ष में अभाव का निश्चय केवल अदर्शनमात्र से शक्य नहीं है यह निषेध तो पहले भी किया जा चुका है। सच बात यह है कि विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव ही अन्यथानुपपत्ति का बोधक हो सकता है / विपक्ष में 'कल्पनीय अर्थ के विना अनुपपद्यमान अर्थ' की सत्ता में बाध करने वाले प्रमाण की प्रवृत्ति भी अर्थापत्ति प्रमाण की प्रवृत्ति के पहले ही माननी होगी / ऐसा न मानकर अर्थापत्ति से ही उसकी अनुपपद्यमानता का बोध मानेंगे तो यह अन्योन्याश्रय दोष होगा कि जहाँ तक अन्यथानुपपत्ति का बोध नहीं हुआ है वहाँ तक अर्थापत्ति की प्रवृत्ति नहीं होगी और जहाँ तक अर्थापत्ति की प्रवृत्ति नहीं होगी वहाँ तक अर्थापत्तिप्रयोजक अर्थ की अन्यथा-अनुपपत्ति का बोध नहीं होगा। फलतः अर्थापत्ति की प्रवृत्ति ही रुक जायेगी। श्लोक वात्तिक में अनुमान से अर्थापत्ति को भिन्न प्रमाण सिद्ध करने के लिये जो यह कहा गया है कि-"अर्थापत्ति से अदृष्ट अर्थ कल्पना के बाद ही, अनुपपद्यमान अर्थ के साथ उसका अविमाभाव गृहीत होता है, उसके पूर्व वह विद्यमान होने पर भी ज्ञात नहीं होता, अतः वह अनुमान उद्भावक नहीं होता है / अत. अविनाभाव संबंध के ग्रहण काल में दो में से एक संबंधी का भान अर्थापत्ति से ही मानना होगा। हाँ, तत्पश्चाद् अविनाभाव ज्ञात हो जाने पर वहाँ अनुमान हो सकता है।" इत्यादि यह भी उपरोक्त अन्योन्याश्रय दोष से ध्वस्त हो जाता है। क्योंकि यहाँ अर्थापत्ति का उत्थान असंभव है यह कहा जा चुका है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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