________________ 318 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदप्युक्तम् 'अनादिमाता-पितृपरम्परायां तथाभूतस्यापि बोधस्य व्यवहितमातापितृगतस्य सद्भावात् ततो वासनाप्रबोधेन युक्त एवं प्रज्ञा-मेधादिविशेषस्य सम्भवः' इति, तदप्ययुक्तम् , अनन्तरस्यापि माता-पितृपांडित्यस्य प्रायः प्रबोधसम्भवात् , ततश्चक्षुरादिकरणजनितस्य स्वरूपसंवेदनस्य चक्षरादिज्ञानस्य वा यगपत क्रमेण चोत्पत्तौ 'मयैवोपलब्धमेतत' इति प्रत्यभिज्ञानं सन्तानान्तरतदपत्यज्ञानानामपि स्यात् , न च मातापितृज्ञानोपलब्धेस्तदपत्यादेः कस्यचित् प्रत्यभिज्ञानमुपलभ्यते / / अनेन एकस्माद् ब्रह्मणः प्रजोत्पत्तिः' प्रत्युक्ता, एकप्रभवत्वे हि सर्वप्राणिनां परस्परं प्रत्यभिज्ञाप्रसंगः / एकसन्तानोद्भूतदर्शन-स्पार्शनप्रत्यययोरिव / आदि की अपेक्षा मनुष्य की बुद्धि अधिक विकसित है यह स्पष्ट दिखाई देता है / अतः शरीर विकास से चैतन्य का विकास उपादान-उपादेयभाव का साधक नहीं है। यह जो कहा जाता है कि 'शरीर के विकार से चैतन्य में विकार दिखता है जैसे कि देह दुर्बल हो जाने पर ज्ञानशक्ति-स्मरणशक्ति दुर्बल हो जाती है, अतः यही शरीर और विज्ञान का 'उपादान-उपादेयभाव हुआ'-यह भी असिद्ध है क्योंकि जो सात्त्विक प्रकृति वाले उत्तम जीव होते हैं अथवा जिनका चित्त अन्य किसी विषय में दृढ निमग्न हो गया होता है उसको शरीरविकार होने पर भी, यानी शरीर को गहरी चोट लगने पर भी चित्त-चैतन्य में विकार की उपलब्धि नहीं होती। वे स्वस्थ रहते हैं / अतः शरीरविकार से चैतन्य विकार होता है यह असिद्ध है / तथा कार्यगत विशेषता केवल उपादानकारण की विशेषता पर भी निर्भर नहीं होती किन्तु सहकारीकरण की विशेषता पर भी निर्भर होती है। जैसेः विशिष्ट प्रकार के जल और उपजाऊ भूमि के सहकार से बीजात्मकोपादान जन्य अंकूर भी विशिष्ट प्रकार का उत्पन्न होता है। तो इसी प्रकार यौवनावस्था में अथवा तो विशिष्ट प्रकार के सहकारीकारणरूप ब्राह्मीघृतादि के आहार के सेवन से उस विज्ञान में वृद्धिस्वरूप विशेषता हो सकती है जिसका उपादान तो शास्त्रादिसंस्कार से परिष्कृत पूर्वज्ञान ही होता है / इसमें कुछ भी असंभव-सा नहीं है / [चिर पूर्ववर्ती माता-पितृविज्ञान से वासना प्रबोध अमान्य ] नास्तिक ने जो यह कहा था कि-[ पृ० 260 ] "माता-पिता की परम्परा अनादिकालीन है, अतः वर्तमानबालक में जो विशेष प्रज्ञादि हैं वैसे विशेष प्रज्ञादि, परम्परागत किसी दूर के माता-पिता में तो अवश्य रहा होगा. उसी माता-पिता के प्रज्ञादि से परम्परया वासना के प्रबोध से व के प्रज्ञामेधादि विशेष की उत्पत्ति हुयी है, वे माता-पिता चाहे कितने भी दूरवर्ती क्यों न हो ?"-ऐसा कथन भी अयुक्त है, क्योंकि जैसे दूरवर्ती माता-पिता के प्रज्ञादि का प्रबोध वर्तमान बालक में होगा वैसे प्रायः साक्षात् माता-पिता के प्रज्ञादि का भी प्रबोध उसमें संभवित है। इस प्रकार अपने निकट के या दूर के पूर्ववत्ति माता पिताओं को जो नेत्रादिइन्द्रियजन्यज्ञान, अपने स्वरूप का संवेदन, तथा नेत्रादि का ज्ञान हुए थे वे सब वासना के प्रबोध से उनके पुत्रों को भी एक साथ अथवा क्रमशः होने लगेगा, फलतः दूर के पूर्ववर्ती किसी माता-पिता की अन्य परम्परा में जो पुत्रादि उत्पन्न हैं उनको भी वासना के प्रबोध से ऐसी प्रत्यभिज्ञा होगी कि-'जो मुझे वर्तमान में ज्ञान हो रहा है वैसा ही ज्ञान मुझे पहले - भी हुआ था' / क्योंकि एक अनुभविता में वासना के प्रबोध से ऐसी प्रत्यभिज्ञा का होना प्रसिद्ध है। वास्तव में कहीं भी माता-पिता के ज्ञानोपलम्भ की प्रत्यभिज्ञा उनकी सत्तानों को होती नहीं है / अतः