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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 317 यस्तु शरीरवृद्धयादेश्चैतन्यवृद्धयादिलक्षण उपादानोपादेयभावधर्मोपलम्भः प्रतिपाद्यतेऽसौ महाकायस्यापि मातंगाऽजगरादेश्चैतन्याल्पत्वेन व्यभिचारीति न तद्भावसाधकः / यस्तु शरीरविकारा यावकारापलम्भलक्षणस्तद्धर्ममावः प्रतिपाद्यतेऽसावपि सात्त्विकसत्त्वानामन्यगतचित्तानां वा छेदादिलक्षणशरीरविकारसद्भावेऽपि तच्चित्तविकारानुपलब्धरसिद्धः। दृश्यते च सहकारिविशेषादपि जल-भूम्यादिलक्षणाद् बीजोपादानस्यांकुरादेविशेष इति सहकारिकारणत्वेऽपि शरीरादेविशिष्टाहाराधुपयोगादौ यौवनावस्थायां वा शास्त्रादिसंस्कारोपात्तविशेषपूर्वज्ञानोपादानस्य विज्ञानस्य विवृद्धिलक्षणो विशेषो नाऽसंभवी। [ शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेयभाव अयुक्त] दूसरी बात यह है जन्मादिकाल में जो प्रज्ञादि होते हैं और रसायन के उपयोग से तथा अभ्यास से जो प्रज्ञादि होते हैं उनमें कोई जातिभेद नहीं होता, अतः प्रज्ञादि के विभिन्न कारण मानना अयुक्त है, जब कि मेंढक जो मेंढक से होता है और जो गोबर से होता है उनमें कुछ कुछ जातिभेद स्पष्ट ही दिखाई देता है, अतः उनके विभिन्न कारणों को मान सकते हैं। तदुपरांत किसी किसी का दर्शन यानी बोध पूर्वजन्मस्मरणात्मक भी होता है, वहाँ तो जन्मान्तरीय अनुभव को हेतु मानना ही होगा, अतः किसी भी प्रज्ञा-मेधादि विशेष कार्य की उ पत्ति केवल दृश्यमान माता-पिता के देह रूप कारण से ही होती है यह मानना संगत नहीं है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि व्यभिचार के स्थलरूप में प्रतिपादित जो गोबरजन्य मेंढक और मेंढकजन्यमेंढक है, उनमें भी अत्यन्त वैलक्षण्य नहीं है, चूंकि गोबर के रूप-रस-गन्ध-स्पर्श का परिणाम और मेंढक के रूपादि परिणाम ये दोनों ऐसा पुद्गलपरिणाम है जिनमें कोई विलक्षणता नहीं है, अतः गोबरत्वेन या मेंढकत्वेन विभिन्न कारणता को न मानकर जब हम वहाँ समानरूपादिपरिणामरूपेण एक ही कारणता गोबर और मेंढक में मानेंगे तो फिर कोई व्यभिचार ही नहीं है। तदुपरांत शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेय भाव भी नहीं घट सकता, क्योंकि शरीर का संवेदत्त बहिमु ख आकार से होता है, विज्ञान का अन्तर्मुखाकार से। तथा शरीर पररूपेण संवेदित होता है जब कि विज्ञान का संवेदन स्व रूप से होता है / विज्ञान स्वतः प्रकाश है जब कि शरीर वैसा नहीं है / शरीर बाह्येन्द्रियजन्यप्रतीति का विषय होता है जब कि विज्ञान अन्तःकरणजन्यप्रतीति का विषय होता है / इस प्रकार परस्पर का अनुगामी नहीं किंतु प्रतिगामी ऐसे अनेक विरुद्धधर्म के अध्यास से विज्ञान और शरीर में अत्यन्त विलक्षणता का प्रतिपादन पहले किया हुआ है, [ पृ० 314 ] अतः उन दोनों में उपादानोपादेयभाव असंगत है। [ शरीरवृद्धि से चैतन्यवृद्धि की बात मिथ्या ] यह जो शरीर और विज्ञान में उपादान-उपादेयभावधर्म की उपलब्धि दिखायी जाती है कि"शरीर का जैसे जैसे विकास-वर्धन होता है वैसे वैसे चैतन्य (ज्ञानादि) का भी विकास होता है, बाल शरीर लघुकाय होता है तो उसमें ज्ञानादि भी अल्प होते है, युवाशरीर मध्यमकाय होता है तो उसमें मध्यमप्रकार के ज्ञानादि होते हैं और प्रौढव्यक्ति का शरीर पूर्ण विकसित होता है तो उसका ज्ञानादि भी उत्कर्ष प्राप्त रहता है अतः शरीर ही ज्ञानादि का उपादान है"-इस प्रतिपादन में व्यभिचार स्पष्ट है क्योंकि मनुष्य का शरीर लघु होता है और हस्ती- अजगरादि महाकाय प्राणी हैं फिर भी हस्ती
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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