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________________ प्रथमखण्ड-का० १-इश्वर० उ०पक्ष: 501 एतेन 'पूर्वस्माद्धेतोः स्वसाध्यसिद्धावुत्तरेण पूर्वसिद्धस्यैव साध्यस्य किं विशेषः साध्यते, आहोस्वित् पूर्वहेतोः स्वसाध्यसिद्धिप्रतिबन्धः क्रियते ?' इत्यादि सर्व निरस्तम् , यतो यदि कार्यत्वमात्रं हेतुत्वेन क्षित्यादौ साध्यसाधकत्वेनोपादीयते तदा तस्य संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वाऽसाधकत्वम् / अथ घटादौ बुद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तं यत कार्यत्वं तत् तत्र हेतुत्वेनोपादीयते तत् तत्रासिद्धमिति कथं तत् तत्र बुद्धिमत्कारणत्वस्यापि गमकम् ? इत्य विशिष्टस्य कार्यत्वस्य व्याप्त्यभावादेवापर विशेषसाधकहेतुव्यापारमन्तरेणाऽपि कार्यत्वस्य हेतोः स्वसाध्यसाधकत्वव्याघातः संभवत्येव, कार्यत्वविशेषस्य तु तत्राऽसिद्धत्वादेव साध्याऽसिद्धिलक्षणस्तद्विघातः। यत्तु-शब्दस्य कृतकत्वादनित्यत्वसिद्धौ हेत्वन्तरेण गुणत्वसिद्धावपि न पूर्वस्य क्षतिः' इतितदप्यचारु, गुणत्वं हि द्रव्याश्रितत्वादिधर्मयुक्तत्वमुच्यते, तच्चेच्छन्दे सिद्धिमासादयति तदा पूर्वहेतुसाधितमनित्यत्वं तत्र व्याहन्यत एव न a ह्यनुत्पन्नस्य तस्याऽसत्त्वादेव द्रव्याश्रितत्वम् गुणत्वसमवायो वा संभवति, b उत्पन्नस्याप्यत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वेन तन्न संभवति / न च तदाश्रितस्य उत्पत्त (अनुमिति) उत्पन्न होती है / ऐसे स्थलों में कहीं भी किसी भी व्यक्ति को अनीश्वरत्वादि किसी भी व्यभिचार कार्यत्व में उपलब्ध नहीं हुआ। अनीश्वरत्वादिधर्म से व्याप्त हेतु का उपलम्भ यही तो यहाँ अव्यभिचार है और जब वह यहाँ अबाधितरूप से बैठा है तब कोई भी बुद्धिमान यदि यह कहेगा कि-अनीश्वरत्वादि धर्मों के साथ कार्यत्व का व्यभिचार होने से वे धर्म सिद्ध नहीं हो सकते-तो यह उचित नहीं होगा। इस तथ्य को यदि नहीं मानेंगे तो भास्वर रूपादि धर्मों के साथ भी धूम का व्यभिचार मान लिया जायेगा, फिर धूम हेतु से अग्नि का बोध होने पर भी भास्वररूपवाले अग्नि की सिद्धि नहीं होगी। [कार्यत्व हेतु में संदिग्धविपक्षव्यावृत्ति और असिद्धि दोष ] कार्यत्व हेतु अनीश्वरत्वादिधर्मों का भी व्याप्य है इसीलिये पूर्व-पक्षी का यह सब कहा हुआ परास्त हो जाता है कि-प्रथमोक्त हेतु से जब अपना साध्य सिद्ध है तब उत्तरकाल में कथित हेतु से * पूर्वसिद्ध साध्य की ही विशेषता सिद्ध करने का अभिप्राय है या पूर्वहेतु के साध्य की सिद्धि का प्रतिबन्ध करना है ?,-[ पृ० 396 ] इत्यादि....यह सब इसलिये निरस्त है कि-यदि क्षिति आदि पक्ष में सिर्फ कार्यत्व मात्र का ही हेतुरूप में साध्यसिद्धि के लिये प्रयोग करते हैं तब वह बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व को सिद्ध नहीं कर सकेगा क्योंकि हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति ही संदिग्ध है / यदि घटादि में जैसा कार्यत्व बुद्धिमत्कारण का व्याप्त है वैसे कार्यत्व का हेतुरूप में प्रयोग करेंगे तो वैसा कार्यत्व क्षिति आदि में तो असिद्ध है फिर वहां उससे बुद्धिमत्कारणत्व की सिद्धि कैसे होगी ? सारांश, सामान्य कार्यत्व को बुद्धिमत्कारणत्व के साथ व्याप्ति न होने से सामान्य कार्यत्व हेतु से अपने साध्य की सिद्धि करने जायेंगे तो व्याघात ही होगा, फिर वहाँ अन्य विशेष के साधक हेतु का प्रयोग भले ही न किया जाय / यदि विशिष्ट प्रकार के कार्यत्व को हेतु करेंगे तो वह क्षिति आदि में असिद्ध होने से ही साध्यसिद्धि में व्याघात प्राप्त होगा / अतः किसी भी रीते से क्षिति आदि में बुद्धिमत्कारणपर्वकत्व सिद्ध नहीं होता। [गुणत्व की सिद्धि से अनित्यत्व का ध्रुव व्याघात ] यह जो कहा था-कृतकत्व हेतु से शब्द में अनित्यत्व की सिद्धि होने पर अन्य हेतु से उसमें
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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