________________ 500 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चोक्त 'नाऽपि हेतोविशेषविरुद्धता'....इत्यादि, तदप्यसंगतम् , यतो यदि कार्यमात्रात कारणमात्रं तन्वादेः साध्यते तदा व्याप्तिसिद्धेर्न विरुद्धावकाशः / अथ बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं साध्यते, तदा तत्र व्याप्तेरसिद्धत्वं प्रतिपादितमेव / यदि पुनर्घटादौ कार्य वं बुद्धिमत्कारणसहचरितमुपलब्धमिति पृथिव्यादावपि तत् साध्यते, तथा सति दृष्टान्तेऽनीश्वराऽसर्वज्ञ-कृत्रिमज्ञानशरीरसम्बन्धिकर्तृ पूर्वकत्वं कार्यत्वस्योपलब्धमिति ततस्तादृग्भूतमेव क्षित्यादौ सिद्धिमासादयति, न तु तत्सहचरितत्वेनाऽदृष्टमीश्वरत्वादिविरुद्धधर्मकलापोपेतबुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वम् / न हि महानसप्रदेशेऽग्निसहचरितमुपलब्धं धममात्रं गिरिशिखरादावपलभ्यमानमग्निविरुद्धधर्माध्यासितोदकगमकं युक्तम् , अतिप्रसंगात् / यच्चोक्तम्-पूर्वोक्तविशेषणानां धर्मिविशेषरूपाणां व्यभिचारात-इत्यादि,तदप्यसंगतम् , यादृग्भूतं हि कार्यत्वं घटादावनीश्वर (स्वादिधर्मोपेतबद्धिमत्कारणत्वेन व्याप्तमपलब्धं ताहाभतं तदा तदन्यत्राऽपि जीर्णप्रासादादावुपलभ्यमानमक्रियादशिनोऽपि तथाभूतकर्तृ पूर्वकत्वप्रतिपत्ति जनयति / न च तत्र केनचिदनीश्वरत्वादिधर्मेण व्यभिचार: कदाचित केनाऽप्युपलभ्यते / तथाभूतसाध्यव्याप्तहेतूपलम्भ एव तत्र. तदव्यभिचारः, स चेदस्ति कथमनीश्वरत्वादिधर्माणां व्यभिचारादसाध्यत्वं सचेतसा वक्तु युक्तम् , अन्यथा धूमादग्निप्रतिपत्तावपि भास्वररूपसम्बन्धादिधर्माणां व्यभिचारात तथाभूतस्याग्नेर साध्यत्वं स्यात् / ईश्वर की सिद्धि में कोई प्रमाण नहीं है, तथा अचेतनोपादानत्वादिहेतुवाला ईश्वरसाधक अनुमान भी धर्मी-असिद्धि आदि समानदोषों से परास्त हो जाता है / [हेतु में विशेषविरुद्धता का प्रबल समर्थन ] यह जो कहा था-कार्यत्व हेतु में विशेषविरुद्धता यह कोई दोष नहीं....इत्यादि [ पृ. 365 ] -वह भी संगत नहीं है / कारण, यदि देहादि में कार्यत्व हेतु से सिर्फ सकारणत्व ही सिद्ध करना हो तब तो ठीक है कि यहां विशेषविरुद्ध को अवकाश नहीं है, क्योंकि सकारणत्व के साथ कार्यत्व की प्राप्ति असिद्ध है / यदि बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध करना हो तब तो व्याप्ति ही असिद्ध है यह कहा हुआ है / तथा, घटादि में बुद्धिमत्कारण के साथ कार्यत्व का सहचार दृष्ट है इतने मात्र से यदि पृथ्वी आदि में भी उसको सिद्ध करना है, तो घटादि दृष्टान्त में अनीश्वरत्व, असर्वशत्व, अनित्यज्ञान, शरीरसम्बन्ध इत्यादि सहित ही कर्तृ पूर्वकत्व कार्यत्व में उपलब्ध है अतः पृथ्वी आदि में भी अनीश्वरत्वादिधर्मविशिष्ट बुद्धिमत्पूर्वकत्व ही सिद्ध किया जा सकता है किन्तु कार्यत्व के सहचरितरूप में अदृष्ट ऐसा ईश्वरत्वादि जो विरुद्ध धर्मसमूह, उससे युक्त बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व की सिद्धि नहीं की जा सकती / पाकशाला में अग्नि से सहचरित देखा गया धूममात्र पर्वतादि में यदि उपलब्ध हो तो उससे अग्निविरुद्ध शीतत्वादिधर्मविशिष्ट जलादि का बोध (अनुमान) नहीं हो सकता, अन्यथा सभी से सभी के बोध का अतिप्रसंग होने लगेगा। [ अनीश्वरत्वादि के साथ कार्यत्व का व्यभिचार नहीं ] यह जो कहा था-मिविशेषरूप पूर्वोक्तविशेषणों के साथ कार्यत्व का व्यभिचार होने से.... इत्यादि (पृ. 395 पं. 6 )-वह भी असंगत है / कारण, अनीश्वरत्वादिधर्मविशिष्ट बुद्धिमत्कारणत्व के साथ जिस प्रकार के कार्यत्व की व्याप्ति है, वैसा ही कार्यत्व जब जीर्ण-शीर्ण राजभवनादि में देखा जाता है, तब उसकी उत्पत्ति न देखने वाले को भी अनीश्वरत्वादिधर्मवाले कर्ता की ही प्रतीति