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________________ 160 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 मुखादिप्रतिभासवद् अल्प-महत्त्वादियुक्तशब्दप्रतिभासः' इति, दृष्टान्त दार्टान्तिकयोवषम्यात्। अताऽबाधितमहत्त्वादिभेदभिन्नगादिप्रतिभासाद् गादिभेदसिद्ध स्तन्निबन्धनस्य सामान्यस्य गादौ सद्भावाद् तन्निबन्धना प्रत्यभिज्ञा दलितोदितनखशिखरादिष्विव गादावभ्युपगमनीया। ___ अत एव धमादीनामिवाऽनित्यत्वेऽपि गादीनां सामान्यसद्भावतः संगत्यवगमस्य सम्भवाद् न परार्थशब्दोच्चारणान्यथानुपपत्त्या तन्नित्यत्वकल्पना युक्ता / तद गत्वादिविशिष्टस्य गादेरविवक्षितविशेषस्य स्वार्थेन संगत्यवगमेन न किंचिन्नित्यत्वेन / यथा गोत्वादिविशिष्टस्य गोव्यक्तिमात्रस्य वाच्य. त्वे न कश्चिद्दोषः, तद्वद् वाचकत्वेऽपि / तद् अर्थप्रतिपादकत्वस्य अन्यथापि सम्भवात् 'दर्शनस्य परार्थत्वाद् नित्यः शब्दः' इत्ययुक्तमभिहितम् / यत् पुनरुक्तम्-'सदृशत्वेनाऽग्रहणाद् न सादृश्यादर्थप्रतिपत्तिः' इति तत्र यदि सदृशपरिणामलक्षणं सामान्य व्यक्तेः सादृश्यमभिप्रेतं तदा तस्य यथा व्यक्तिविशेषणस्य वाचकत्वं तथा प्रतिपादितम् / अथाऽन्यथाभूतं सादृश्यमत्र विवक्षितं तदा तस्य वाचकत्वानभ्युपगमात् स एव परिहारः। यत्तूक्तम् चाहिये, वह नहीं होता / निष्कर्ष यह हुआ कि व्यंजक नादों में गकारादि की प्रतिबिम्बित छाया का भान नहीं होता। तथा, अमूर्त गकारादि में ध्वनि की छाया प्रतिबिम्बित होने से ध्वनिगते महत्त्वादि का उपचार से गकारादि में भान भी युक्त नहीं है। क्योंकि अमूर्त में किसी पदार्थ का प्रतिबिम्ब उपलब्ध नहीं होता / उदा० अमूर्त आकाशादि में घट-पटादि की छाया का प्रतिबिम्ब उपलब्ध नहीं होता / अतः यह जो कहा था कि 'खड्गादि में जैसे मुख का लम्ब-वर्तुलादि आकार प्रतिभास होता है वैसे अल्पमहत्त्वादि धर्मयुक्त शब्द का प्रतिभास होता है' यह अयुक्त कहा गया है। कारण, दृष्टान्त मूर्त का है और दार्टान्तिक तो अमूर्त का है-इस प्रकार दोनों में पूरा वैषम्य है। उपरोक्त रीति से महान्-कर्कशादि भेद से भिन्न भिन्न गकारादि का प्रतिभास निर्बाध सिद्ध होने से गकारादि का भेद भी सिद्ध होता है और तन्मुलक गत्वादि सामान्य का सद्धाव भी गकारादि में मानना पड़ेगा। फलतः, काट देने पर नये उगने वाले नखान आदि में सामान्यमुलक प्रत्यभिज्ञा की भांति गकारादि में भी ऐक्य प्रत्यभिज्ञा को सामान्यमूलक मानना पड़ेगा। [पराथोंच्चारण से शब्दनित्यत्व कल्पना असंगत ] उपरोक्त हेतु से, परार्थशब्दोच्चारण की अन्यथानुपपत्ति से शब्द में नित्यत्व की कल्पना करना ठीक नहीं है / कारण, जिस प्रकार धूमादि लिंग अनित्य होने पर भी धूम सामान्य के प्रभाव से व्याप्ति संबंध का भान होता है उसी प्रकार अनित्य गकारादि को सुनने पर गत्वादि सामान्य के प्रभाव से संकेतोपस्थिति द्वारा शाब्दबोध हो सकता है। जब गत्वादिविशिष्ट गकारादि व्यक्ति का अपने अर्थ के साथ संबंध का अवगम किसी विशेष की अपेक्षा किये विना ही शक्य है तो नित्यत्व मानने का कोई भी प्रयोजन नहीं है / दूसरी बात यह है कि गोत्वादि सामान्य से अनुविद्ध गोत्वादि मात्र को वाच्य मानने में मीमांसक को कोई दोष नहीं लगता है तो गत्वादिसामान्यानुविद्ध गकारादि शब्द व्यक्ति को वाचक मानने में भी कोई दोष नहीं है। इसलिये आपने जो यह कहा था कि 'दर्शन परार्थ होने से शब्द नित्य है' यह भी ठीक नहीं है। कारणा, शब्द अनित्य होने पर भी उससे अर्थ प्रतिपादन होने का पूरा संभव है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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