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________________ 476 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 . यच्च-घटादिवत् पृथिव्यादि स्वावयवसंयोगैरारब्धमवश्यं तद्विश्लेषाद् विनाशमनुभविष्यति, इत्यादि-तदप्यसंगतम् , अवयवसंयोगवत् तद्विश्लेषस्यापि विभागलक्षणस्य विनाशं प्रति हेतुत्वेनोपन्यस्तस्याऽसिद्धत्वात . तदसिद्धत्वं च संयोगवद् वक्तव्यम् / ‘एवं विनाशाद् वा संभावितात् कार्यत्वानुमान रचनास्वभावत्वाद्वा' इत्यादि सर्व निरस्तं दृष्टव्यम् / यत्तु चार्वाकं प्रति कार्यत्वसाधनायोक्तम्-'यथा लौकिक-वैदिक्यो रचनयोरविशेषात् कर्तृ पूर्वकत्वं तथा प्रासादादि-पृथिव्यादिसंस्थानयोरपि तद्रूपताऽस्तु, अविशेषात्'-तदप्यचारु, तद्विशेषस्य प्रतिपादितत्वात् ततः कार्यत्वादिलक्षणस्य हेतोरसिद्धव / यच्चाऽभाषि 'सिद्धत्वेऽपि नास्माद्धेतोः साध्यसिद्धिर्युक्ता, न हि केवलात् पक्षधर्माद् व्याप्तिशून्यात साध्यावगमः' तत् सत्यमेव, व्याप्तिरहिताद्धेतोः साध्यसिद्धरसम्भवात् / कार्य कभी कारणद्रोही नहीं होता-यह न्याय है। आशय यह है कि किसी एक वस्तु के माध्यम से यदि अन्य किसी सम्बद्ध वस्त का ज्ञान करना हो तो उन दोनों में कार्य-कारणभावादि सम्बन्ध है या नहीं यही खोजना चाहिये, वरना उस एक वस्तु के माध्यम से प्रयोजित अनुमान प्रमाण न होकर प्रमाणाभास हो जाने का सम्भव है। यह जो आपने कहा था-अनीश्वरवादी का ऐसा कहना उचित नहीं है कि-'घटादिगत कार्यत्व और पृथ्वी आदिगत कार्यत्व में केवल शब्द का ही साम्य है, अनुगत यानी समान कार्यत्व दोनों में नहीं है'-क्योंकि पाकशाला और पर्वत के धूम के लिये भी ऐसा कहा जा सकेगा - यह भी ईश्वरवादी का कथन असंगत है क्योंकि धूमादि स्थल में वास्तव साम्य है और कार्यत्वस्थल में केवल शब्दसाम्य ही है यह हमने इस युक्ति से दिखा दिया है कि पृथ्वी आदि गत कार्यत्व को बुद्धिमत्कारण के साथ व्याप्ति ही नहीं है। [संयोग की तरह विभाग भी असिद्ध है] ___ कार्यत्व की पृथ्वी आदि में सिद्धि हेतु आपने यह जो कहा था-[ पृ. 386 पं. 1 ] पृथ्वो घटादि की तरह अपने अवयवों के संयोग से जन्य है अतः अवयवों के विश्लेष से घटादि की तरह पृथ्वी आदि का भी अवश्यमेव विनाश होगा-यह भी असंगत है, क्योंकि-संयोग जैसे कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है उसी प्रकार विभाग स्वरूप अवयव विश्लेष भी कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है अत: कार्यत्व की सि के लिये उपन्यस्त विश्लेष हेतु ही असिद्ध है। जैसे हमने संयोग को असिद्ध दिखाया है [ पृ. 461 पं. 1 ] उन युक्तियों से ही विभाग को भो असिद्ध समझ लेना चाहिये / अत: आपका तत्रोक्त यह कथन-'इस रीति से सम्भावित विनाश से अथवा रचनास्वभाव से पृथ्वी आदि में कार्यत्व का अनुमान हो सकता है'-भी निरस्त हो जाता है / तथा, चार्वाक के प्रति पृथ्वी आदि में कार्यत्वसिद्धि के लिये आपने जो यह कहा है-लौकिक और वैदिक वाक्य रचनाओं में किसी भेदभाव के विना ही कर्तृ पूर्वकता मानी जाती है वैसे प्रासादादि और पृथ्वी आदि के संस्थानों में भी कर्तृ पूर्वकता मानी जाय, क्योंकि यहाँ भी समानता है [ पृ. 387 पं. 4 ]-यह भी रुचिकर नहीं है क्योंकि यहाँ समानता नहीं है किन्तु विशेषता है और वह कह दी गयी है। अतः बुद्धिमत्कारण से व्याप्त कार्यत्व तो पृथ्वी आदि में असिद्ध ही रहता है / हमारी ओर से आपने जो यह कहा था-पृथ्वी आदि में कार्यत्व सिद्ध हो जाय तो भी उससे साध्यसिद्धि नहीं हो सकती, केवल पक्षधर्मता के बल पर व्याप्तिशून्य हेतु से साध्यसिद्धि का सम्भव नहीं है [ पृ. 387 पं. 7 ]-यह बात सत्य है, क्योंकि व्याप्तिशून्य हेतु से साध्य की सिद्धि का असम्भव ही है /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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