________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 477 यच्च ‘घटादौ कर्तृ पूर्वकत्वेन कार्यत्वाऽवगमेऽपि केषाञ्चित् कार्याणामकर्तृ पूर्वकाणां कार्यत्वदर्शनात् न सर्व कार्य कर्तृ पूर्वकम् . यथा वनेषु वनस्पत्यादिनाम्' इति तदपि सत्यमेव 'तस्माद् नेश्वरसिद्धौ कश्चिद्धतुरव्यभिचार्यस्ति' इत्येतत्पर्यन्तम् / यदप्युक्तम् 'नाकृष्टजातैः स्थावरादिभिर्व्यभिचारो व्याप्त्यभावो वा, साध्याभावे हेतुर्वर्तमानो व्यभिचारी उच्यते, तेषु कत्रग्रहणं न कञभावनिश्चय.' इति तदप्यसारम् , सर्वप्रमाणाऽविषयत्वेऽपि यदि स्थावरादिषु कर्बभावनिश्चयो न भवति तथा सति आकाशादौ रूपाद्यभावनिश्चयो मा भूत् / अथ तत्र रूपादिसद्भावबाधकप्रमाणसद्भावात् तदभावनिश्चयः, सोऽत्रापि समानः / तच्च प्रमाणं प्रदर्शयिष्यामोऽनन्तरमेव / यत्तूक्तम् - क्षित्याद्यन्वय-व्यतिरेकानुविधानदर्शनात् तेषाम तदतिरिक्तस्य कारणत्वकल्पनेऽतिप्रसंगदोष इति, एतस्यां कल्पनायां धर्माधर्मयोरपि न कारणता भवेत्'....इत्यादि, तदयुक्तम् , धर्मा. ऽधर्मादेः कारणत्वं जगद्वैचित्र्यान्यथाऽनुपपत्त्या व्यवस्थाप्यते / तथाहि-सर्वानुत्पत्तिमतः प्रति भूम्यादेः साधारणत्वात्तदन्याऽदृष्टास्यविचित्रकारणकृतं कार्यवैचित्र्यम। न चैवमीश्वरस्य कारणत्वपरिकल्पनायां किञ्चिनिमित्तं संभवति, तद्व्यतिरेकेण कस्यचिदर्थस्यानुपपद्यमानस्याऽदृष्टेः / न च चेतनं कर्तारं विना कार्यस्वरूपानुपपत्तिरिति शक्यं वक्तुम् , दृष्टस्यैव सुगतसुतैश्चैतन्यस्य जगद्वैचित्र्यकर्तृ कत्वेनाभ्युपगमात् , तदा तद्व्यतिरिक्तान्येश्वरस्य कल्पनायां निमित्ताभावात् / [सभी कार्य कत पूर्वक नहीं होते यह ठीक कहा है ] यह जो आपने पूर्वपक्ष के रूप में कहा था कि-घटादि में कर्तृ पूर्वकत्वरूप से कार्यत्व का बोध होता है फिर भी कई कार्यों में अकर्तृ पूर्वक भी कार्यत्व दिखता है अतः सभी कार्य कर्तृ पूर्वक नहीं होते, जैसे वन में उत्पन्न वनस्पति आदि कर्ता के विना ही होते हैं....इत्यादि [ 388-1 ] वह तो बीलकुल ठीक ही कहा है, यावत्....'इसलिये ईश्वरसिद्धि में कोई अव्यभिचारी हेतु नहीं है'....यहाँ तक [पृ. 389 पं. 27 ] ठीक ही कहा है / __यह भी जो कहा था-"विना कृषि से उत्पन्न स्थावरादि से व्यभिचार नहीं है या व्याप्तिशून्यता भी नहीं है, हेतु तो तब व्यभिचारी कहा जाय जब साध्य न रहने पर भी स्वयं रहे, स्थावरादि में कर्तारूप साध्य का ग्रहण (प्रत्यक्ष) नहीं है यह बात ठीक है किन्तु उसके अभाव का निश्चय नहीं है।"....इत्यादि, [ पृ. 390-1] वह असार है, स्थावरादि का कर्ता किसी भी प्रमाण का विषय न बनने पर भी यदि कर्ता के अभाव को निश्चित नहीं कहेंगे तो फिर गगनादि में रूपादि अभाव का भी निश्चय मत हो / यदि कहें कि-वहाँ रूपादि मानने में बाधक प्रमाण मौजूद होने से रूपाभाव का निश्चय मान सकते हैं तो यह बात यहाँ स्थावरादि में कर्ता के विषय में भी समान है / और उस प्रमाण को-अर्थात् स्थावरादि में कर्तृ बाधक प्रमाण को थोडै ही समय में हम दिखायेंगे। [धर्माधर्म की कारणता सलामत है ] यह जो कहा था-अकृष्टजात स्थावरादि के उत्पादन में सिर्फ भूमि आदि के ही अन्वय-व्यतिरेक दिखाई देने से भूमि आदि के अतिरिक्त कारण की कल्पना में अतिप्रसंग दोष होगा-(इस प्रकार के पूर्वपक्ष के सामने आपने जो कहा था कि) ऐसे दोष की कल्पना करने पर तो धर्माधर्म में भी कारणता सिद्ध नहीं होगी....इत्यादि, [ पृ. ३६०-पं. 4 ] वह तो अयुक्त है कारण, जगत् की विचित्रता अन्य प्रकार से न घट सकने से धर्माधर्म में कारणता स्थापित की जाती है। देखिये - भूमि आदि तो सभी