________________ 238 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 ज्ञानातिशयवत्सु च सकलशास्त्रव्याख्यातृषु वचनस्यातिशयभावो दृश्यते इति ज्ञानप्रकर्षतरतमा (मता)धनुविधानदर्शनात्तत्कार्यता तस्य धूमस्येवाग्न्यादिसामग्रीगतसुरभिगन्धाद्यनुविधायिनो यथोक्तप्रत्यक्षाऽनुपलम्माभ्यां व्यवस्थाप्यते / अत एव कारणगतधर्मानुविधानमेव कार्यस्य तत्कार्यतावगमनिमित्तं, न पुनरन्वयव्यतिरेकानुविधानमात्रम् / तदुक्तम्-कार्य धूमो हुतभुजः कार्यधर्मानुवृत्तितः॥ [प्र० वा० 3.34 ] यच्च यत्कार्यत्वेन निश्चितं तत् तदभावे न कदाचिदपि भवति, अन्यथा तद्धेतुकमेव तन्न स्यादिति सकृदपि ततो न भवेत् / भवति च यद् यत्र निश्चिताऽविसंवादं वचनं तत् तदविसंवादिज्ञानविशेषाद् इत्यात्मन्येवासकृनिश्चितमिति नान्यतस्तस्य भावः / तेन (सिद्धमिदम्) / यद् यस्यैव गुण-दोषान् नियमेनानुवर्तते / तन्नान्तरीयकं तत् स्यादतो ज्ञानोद्भवं वचः // [ ] ___ अथ यदि नामाविसंवादिज्ञानधर्मानुकरणतोऽविसंवादि बचनमेकं तत्प्रभवं यथोक्तप्रत्यक्षानुपलम्भतोऽवगतं तदन्यतो न भवति, तथाप्यन्यवचनस्य तद्धर्मानुकरणतो न तत्कार्यत्वसिद्धिरिति तस्याऽन्यतोऽपि भावसंभवात् कुतो व्यभिचारः ? न, ईदग्भूतं वचनमीक्षज्ञानतः सर्वत्र भवतीति सकृत्प्रवृत्तप्रत्यक्षतोऽवगमात्। यानी उत्कर्षापकर्ष दिखाई देता है उसी तरह वचन में भी उत्कर्षापकर्ष उपलब्ध होता-किन्तु वह उपलब्व नहीं होता है, यह इस प्रकार-अत्यंत अल्पविज्ञानवाले कृमि-कीटादि में अल्पज्ञता का प्रकर्ष उपलब्ध है किन्तु वे बिचारे एक हरफ भी नहीं निकाल सकते, अर्थात् वचन प्रवृत्ति का उत्कर्ष उनमें सदैव अनुपलब्ध है / मनुष्यादि में उससे विपर्यय भी है। यदि असर्वज्ञत्व में नत्र प्रयोग को प्रसज्यप्रतिषेधवाचक माना जाय तो असर्वज्ञत्व का अर्थ हुआ सर्वज्ञत्वाभाव, वचन को यदि उसका कार्य माना जाय तो मुर्दे में सर्वज्ञत्व का अभाव होने से वचनोपलम्भ होना चाहिये, किन्तु अफसोस ! कभी भी उसमें वचनोपलम्भ नहीं होता। [वचन की संवादिता ज्ञान विशेष का कार्य है ]. ___ असर्वज्ञत्व यह वचन का हेतु नहीं है यह तो निःसंदेह है, उपराँत, तथ्य तो उससे विपरीत यह है कि जो अतिशयित ज्ञानी पुरुष हैं वे सकल शास्त्र के व्याख्यान में निपूण देखे जाते हैं और उनका वचन भी सातिशय दिखाई देता है, इस प्रकार ज्ञानप्रकर्ष के तरतमभाव के साथ वचन का तरतमभाव दृश्यमान होने से वचन में ज्ञानकार्यता निष्कंटक सिद्ध होती है। यह ठीक उसी प्रकार जैसे कि अग्नि उत्पादक सामग्री में अगर काष्ठादि सुगन्धयुक्त होता है तो उससे उत्पन्न धूम में भी सौरभ का अनुविधान दिखाई देता है-इस प्रकार के प्रत्यक्ष और अनपलम्भ से धम को सगन्धिकाष्ठ जन्य सिद्ध कि जाता है। इतनी चर्चा से यह सिद्ध होता है कि कारणगत धर्म का अनुविधान ही कार्य में 'यह अमुके कारण से जन्य है' इस प्रकार के बोध का निमित्त है, यह नहीं कि केवल कारणरूप से अभिमत भाव का अन्वय व्यतिरेक का ही अनुविधान / जैसे कि प्रमाणवात्तिक में कहा है-धूम अग्नि का कार्य है क्योंकि धूम कार्य में (कारण अग्नि के) धर्मों का अनुविधान है / [संवादिज्ञान के विरह में संवादिवचन का असंभव ] यह तो निश्चित है कि जो जिसके कार्यरूप में सिद्ध है वह कभी भी उसके अभाव में नहीं उत्पन्न होता / यदि वह उसके विना उत्पन्न हो जाय तो वह तज्जन्य ही नहीं होगा, और तब कभी भी