________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 239 - ननु सकलव्यक्त्यनुगततिर्यक्सामान्यानभ्युपगमे यावन्ति तथाभूतवचांसि तानि सर्वाणि प्रत्यक्षीकरणीयानि तथाभूतज्ञानकार्यतया, अन्यथैकस्यापि वचसस्तव्याप्ततयाऽप्रत्यक्षीकरणे तेनैव व्यभिचारी हेतुः स्यात् , न चैतावत्प्रत्यक्षीकरणसमर्थ प्रत्यक्षम् , तस्य संनिहितविषयत्वात् , न चान्येषां स्वलक्षणानामनुमानात् साध्यधर्मेण व्याप्तिग्रहरणम् , अनवस्थाप्रसंगात् / तदयुक्तम् , यतः प्रत्यक्षं तथाभूतीनसंनिधान एव तथाभूतवचनभेदात् (दान)प्रतिपद्य एषु 'प्रतथाभूतवचनव्यावृत्तं रूपमतथाभूतज्ञानव्यावृत्तज्ञानजन्यम्' इत्यवधारयति, अन्यथाऽत्रापि तथाभूतज्ञानजन्यतया न प्रत्यक्षेणावधार्येत / एवं हि तथाभूताऽतथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतवचनस्य प्रतीतिः स्यात् न तथाभूतज्ञानजन्यतयैव, प्रतीयते च तथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतं वचनम् / तस्मादन्यत्रान्यदा च तथाभूतज्ञानादेव तथाभूतवचनमिति कुतो व्यभिचारः ? यश्च तद्रूपमन्यतोऽवधारयितु शक्नोति तस्यैव तदनुमानम् , यथा बाष्पादिविलक्षणधूमावधारणेऽग्न्यनुमानम्। उससे उत्पन्न नहीं हो सकेगा / यहाँ प्रस्तुत में, जहाँ जो वचन अविसंवादिरूप में निश्चित होता है वह अवश्य अविसंवादीज्ञान विशेष से ही उत्पन्न होता है यह तो अपने ही आत्मा में बार बार अनुभव से निश्चित किया है / अत: अन्य किसी असर्वज्ञतादि से उसका संभव ही नहीं है / जैसे कि कहा है-"जो भाव जिस कारण के गुणदोष का अवश्यमेव अनुवर्तन करता है वह उसका अविनाभावी होता है-इस नियम से वचन भी ज्ञानजन्य है।" .. यदि यह व्यभिचार शंका की जाय कि-"किसी एक अविसंवदिवचन में अविसंवादी ज्ञानधर्म का अनुकरण देखने पर आपके द्वारा प्रदर्शित प्रत्यक्षानुपलम्भप्रमाण से उस एक वचन में ज्ञानजन्यता सिद्ध होने से वह वचन अन्य किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है यह मान लेते हैं किन्तु जिस वचन में प्रत्यक्षानुपलम्भप्रवृत्ति नहीं हुयी है उस वचन में भी कारणधर्मानुवृत्ति द्वारा अविसंवादिज्ञानजन्यत्व की सिद्धि कैसे मानी जाय ? उस वचन को तो अन्य प्रकार से भी उत्पन्न होने की संभावना की जा सकती है, तो फिर ज्ञान और वचन के कारण कार्यभाव में अव्यभिचार कैसे सिद्ध करोगे?"- इस शंका का उत्तर यह है कि-एक बार जिस प्रत्यक्ष (अनुपलम्भ) की प्रवृत्ति होती है उससे केवल इतना ही नहीं जाना जाता कि यह अंसंवादि वचन इस अविसंवादिज्ञान से जय है, किंतु यह जाना जाता है कि जहाँ कहीं भी जो कोई ऐसा अविसंवादी वचन होता है वह सब इस प्रकार के अविसंवादीज्ञान से ही होता है / [ अनुगत एक सामान्य के अस्वीकार में आपत्तिशंका-समाधान ] यदि यह शंका की जाय कि-"आपने जो कहा है, अविसंवादिवचनमात्र अविसंवादीज्ञानजन्य है-यह तो समस्त व्यक्तिओं में अनुगत एक सामान्य का स्वीकार किये विना शक्य नहीं है / और अनुगत सामान्य* को आप के जैन मत में तो माना नहीं जाता अतः आपको जितने भी अविसंवादिवचन हैं उन सभी का अविसंवादिज्ञान के कार्यरूप में प्रत्यक्ष करना होगा, यदि यह नहीं किया जायेगा तो - जिस अविसंवादि वचन का अविसंवादिज्ञानव्याप्यरूप में प्रत्यक्ष न होगा वही अविसंवादिवचन व्यभिचार स्थल बन जायेगा जहाँ अविसंवादिज्ञान जन्यता प्रत्यक्ष न की जायेगी। अब यह देखिये कि सकल *जैन मत में एक अनुगत सामान्य नहीं माना जाता किंतु सदृश परिणामरूप अनुगत सामान्य माना जाता है-यह अगले परिच्छेद में ही स्पष्ट हो जायेगा।