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________________ 300 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 'प्रमाणाभावे तन्निबन्धनायाः प्रमेयव्यवस्थाया अप्यभाव' इति प्रसंगविपर्ययः / स च 'व्यापकामावे व्याप्यस्याप्यभावः' इत्येवं भूतव्यापकानुपलब्धिसमुदभूतानुमानस्वरूपः / एतदपि प्रसंगविपर्ययरूपमनुमानं प्रमाणतो व्याप्य-व्यापकभावसिद्धौ प्रवर्तत इति व्याप्तिप्रसाधकस्य प्रमाणस्य तत्प्रसादलभ्यस्य चानुमानस्य प्रामाण्ये स्ववाचैव भवता दत्तः, स्वहस्तः इति नानुमानादिप्रामाण्यप्रतिपादनेऽस्माभिः प्रयस्यते / अतो यदुक्तम्-'सर्वत्र पर्यनुयोगपराण्येव सूत्राणि बृहस्पतेः' इति तदभिधेयशून्यमिव लक्ष्यते उक्तन्यायात्। यत्तूक्तम्-'प्रत्यक्षं सन्निहितविषयत्वेन चक्षुरादिप्रभवं परलोकादिग्राहकत्वेन न प्रवर्तते'- तत्र सिद्धसाधनम् / यच्चोक्तम्-'नाप्यतीन्द्रियं योगिप्रत्यक्षं, परलोकवत्तस्याऽसिद्धः' इति, तद् विस्मरणशीलस्य भवतो वचनम् , अतीन्द्रियार्थप्रवृत्तिप्रवणस्य योगिप्रत्यक्षस्यानन्तरमेव प्रतिपादितत्वात् / यत् पुनरिदमुच्यते 'नापि प्रत्यक्षपूर्वकमनमानं तदभावे प्रवर्तते' तदसंगतम् , प्रत्यक्षेण हि सम्बन्धग्रहणपूर्व सकते हैं ] प्रसंग साधन का लक्षण यह है-दो वस्तु के बीच व्याप्य-व्यापक भाव सिद्ध होने पर कहीं पर भी व्याप्य की सत्ता व्यापक की सत्ता के विना नहीं होती-इस प्रकार दिखाया जाय / इस लिये आप की ओर से भी प्रमाण के आधार से यह दिखाना होगा कि प्रमेय को व्यवस्था प्रमाणप्रवृत्ति के प्त है। अर्थात जहाँ भी प्रमेय की व्यवस्था होती है वह प्रमाणप्रवृत्तिपूर्वक ही होती है। ऐसी व्याप्ति यदि नहीं दिखायेंगे तो प्रमाणप्रवृत्ति के विना भी प्रमेयव्यवस्था की सम्भावना रह जायेगी / जब प्रमेयव्यवस्था प्रमाणाधीन मानी जायेगी तब परलोकादि के साधक प्रमाण के पर्यनुयोग में भी यदि प्रमाण होगा तो परलोकादि की व्यवस्था क्यों नहीं होगी? तथा, जब आप प्रमेयव्यवस्था और प्रमाण की व्याप्ति दिखायेंगे तब तो व्याप्य-व्यापकभाव के ग्राहक प्रमाण को भी मानना होगा, फिर व्याप्य-व्यापकभाव के ग्राहक प्रमाण के आधार पर परलोक आदि के साधक रूप में प्रवर्त्तमान कार्य हेतु या स्वभाव हेतु का निगकरण करना कैसे उचित होगा, जब कि व्याप्ति सा प्रमाण को मानने पर अनायास ही अनुमान की प्रवृत्ति सिद्ध है ? प्रसंगसाधन की भाँति विपर्यय प्रयोग भी देखिये [ नास्तिक कृत विपर्यय प्रयोग की समीक्षा ] 'प्रमाणप्रवृत्ति नहीं होगी तो प्रमेय की व्यवस्था भी न होगी' यह प्रसंगविपर्यय [ यानी व्यतिरेकानुमान ] है / उसके स्वरूप का विश्लेषण करने पर 'व्यापक के न होने पर व्याप्य भी नहीं होता' -इस प्रकार व्यापकानुपलब्धिप्रयुक्त अनुमान ही फलित होगा। प्रसंग और विपर्यय स्वरूप में दोनों अनुमान, प्रमाण से व्याप्य-व्यापक भाव की सिद्धि होने पर ही प्रवृत्त हो सकते हैं, अतः व्याप्तिसाधक प्रमाण और उसकी कृपा से होने वाले अनुमान के प्रामाण्य को आपने अपनी जबान से ही टेका-हस्तावलम्ब दे दिया, अतः अनुमानादि के प्रामाण्य को सिद्ध करने के लिये हमें प्रयाम कराने की जरूर नहीं रहती / अत एव, आपने जो यह कहा था कि 'बृहस्पति के सूत्र सर्वत्र पर्यनुयोग प्रवण ही हैं, वह उपरोक्त रीति से विचार करने पर निरर्थक प्रलाप सा लगता है / - [ कार्यहेतुक परलोकसाधक अनुमान ] ___नास्तिक ने जो यह कहा था-'प्रत्यक्ष केवल निकटवर्ती वस्तु को विषय करने वाला होने से नेत्रादि जन्य प्रत्यक्ष परलोकादि के ग्रहण में प्रवृत्ति नहीं करता'-[ पृ० 283 पं० 8 ] वह हमारे मत
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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