________________ "120 सम्मतिप्रकरण नयकीण्ड"१ पूर्व सम्बन्ध ; पश्चाद् व्यापारः ? पूर्वस्मिन् पक्षे नं व्यापारार्थः सम्बन्ध, पूर्वमेव 'ध्यापारसद्भावात् / उत्तरस्मिन् “पुनर्विकल्पद्वर्यम्-संबन्धे सति कि परस्परसापेक्षाणां स्वव्यापारकर्तृत्वम् ? उत निरपे सापेक्षत्वे स्वव्यापारकर्तृत्वानूपपत्तिः, अनेकजन्यत्वात तस्या। निरपेक्षत्वे कि मीलनेन ? ततश्च संसर्गावस्थायामपि स्वव्यापारकरणादनवरतफलसिद्धिः, न चैतद् दृष्टमिष्ट वा। तन्न युक्त व्यापारस्याऽप्रतीयमानस्य कल्पनम् / को वन्यथा संभवति फलेऽप्रतीयमानकल्पनेनाऽऽत्मानमायासयति ? अन्यथासंभवश्व इन्द्रियादिषु सत्सु फलस्य प्रागेव दर्शितः, इन्द्रियादेः तवाभ्युपगमनीयत्वात् / / इतोऽपि संवेदनाऽऽख्यं फलमपरोक्षं व्यापारानुमापकमयुक्तम्, स्वदर्शनव्याघातप्रसक्तः / तथाहिभवताशून्यवादपरतःप्रामाण्यप्रसक्तिभयात् स्मृतिप्रमोषोऽभ्युपगतः, विपरीतख्यातौ तयोरवश्यंभावित्वात् / तथाहि-" / १-तस्यामन्यदेशकालोऽर्थस्तद्देशकालयोरसन प्रतिभाति, न च उद्देशत्वाद्यसत्त्वस्यात्यन्ताऽसत्त्वस्य चासत्प्रतिभांसे कश्चिद्विशेषः यथाऽन्यदेशाद्यवस्थितमाकारं कुतश्चिद् भ्रमनिमित्ताद् ज्ञानं दर्शयति तथा अविद्यावशादत्यन्तासन्तमपि कि न दर्शयति ? तथा च कथं शून्यवादाद मुक्तिः ? [ व्यापार और कारक संबंध का पौर्वापये कैसे ?] यह जो कहा गया था कि इन्द्रियादि सामग्री अन्तर्भूतकारकों के मिलन की सार्थकता क्रियात्मक व्यापार को उत्पन्न करने में है-उस पर भी दो विकल्प हैं-[A] पहले व्यापार होता है और बाद में कारकों का अन्योन्य मिलन होता है ? अथवा [B] पहले कारकों का मिलन होने के बाद व्यापार उत्पन्न होता है ? [A] आद्य कल्प में कारकों का मिलन व्यापार के लिये नहीं हुआ, क्योंकि उसके पहले ही व्यापार तो विद्यमान है / [B] दूसरे कल्प में फिर से दो विकल्प का सामना करना होगा। १-व्यापार के लिये कारकों के मिलने पर वे सब कारक अन्योन्य की अपेक्षा से अपने व्यापार को जन्म देते हैं ? या २अन्योन्य निरपेक्ष रह कर अपने व्यापार को जन्म देते हैं ? १-अन्योन्य की अपेक्षा करने पर तो स्व यानी स्वयं व्यापार के कर्ता ही नहीं हये क्योंकि व्यापार कोई एककारक जन्य नहीं रहा किन्तु अनेक कारकजन्य हुआ। २-अन्योन्य की अपेक्षा न होने के दूसरे विकल्प में तो कारकों के मिलन का प्रयोजन ही क्या ? जब मिलन निरर्थक हुआ तो उसका मतलब यह हुआ कि अन्य कारकों की असंसर्ग दशा में भी कारक अपने व्यापार को करता है / तात्पर्य, अगर उसको अन्य की अपेक्षा नहीं है क कारक जीयेगा तब तक निरन्तर संवेदनरूप फल उत्पन्न होता रहेगा। न तो ऐसा किसी ने देखा है, 'न तो वह इच्छनीय है, इसलिये निष्कर्ष यह हुआ कि प्रतीति में न आने वाले व्यापार की कल्पना अयुक्त है / व्यापार के विना भी यदि फलोत्पत्ति का संभव हो तो अप्रतीत व्यापार की कल्पना का कष्ट कौन करेगा? / इन्द्रियादि के रहने पर व्यापार विना भी फलोत्पत्ति का संभव तो पहले बताया है, तथा व्यापारवादी को भी इन्द्रियादि अवश्य मानना है।। [शून्यवादादि भय से स्मृतिप्रमोषाभ्युपगम ] 6; यह भी एक कारण अपने ही दर्शन का व्याघातरूप है जिससे मानना होगा कि संवेदनसंज्ञक , अपरोक्ष फल से व्यापार की अनुमिति का होना अयुक्त ठहरेगा / वह इस प्रकार-शून्यवाद की आपत्ति / /