________________ प्रथमखण्ड-का० १-अभावप्रमाणव्यर्थता 119 अथ द्वितीया कल्पनाऽभ्युपगम्यते, सापि न युक्ता। यतोऽर्थस्य संवेदनं तद् भवज्ज्ञातृव्यापारलिंगतां समासादयति, सा च तदसंवेदनस्वभावस्य कथं संगता? शेषं तु पूर्वमेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते। ___कि च, अर्थप्रतिभासस्वभावं संवेदनम् , ज्ञाता, तद्वयापारश्च बोधात्मको नैतत् त्रितयं क्वचिदपि प्रतिभाति / अथ-'घटमहं जानामि' इति प्रतिपत्तिरस्ति, न चैषा निह्नोतु शक्या, नाप्यस्याः किंचिद् बाधकमुपलभ्यते, तत् कथं न त्रितयसद्भावः ? तथाहि-'अहम्' इति ज्ञातुः प्रतिभासः, 'जानामि' इति संवेदनस्य, 'घटम्' इति प्रत्यक्षस्यार्थस्य, व्यापारस्य त्वपरस्य प्रमाणान्तरतः प्रतिपत्तिरित्यभ्युपगमः ।'-अयुक्तमेतत् , यतः कल्पनोद्भूतशब्दमात्रमेतत् , न पुनरेषवस्तुत्रयप्रतिभासः / अत एवोक्तमाचार्येण-'एकमेवेदं संविद्रूपं हर्ष-विषादाद्यनेकाकारविवर्त्त समुत्पश्यामः, तत्र यथेष्टं संज्ञाः क्रियन्ताम् / किं च, व्यापारनिमित्त कारकसम्बन्धे विकल्पद्वयम्-कि पूर्व व्यापारः पश्चात् संबन्ध ? उत [ अर्थाप्रतिभासस्वभाव संवेदन संभव ही नहीं है ] दूसरी कल्पना (अर्थप्रतिभासस्वभावविपरीतस्वभाव) का यदि स्वीकार करें तो वह भी अयोग्य है / कारण, अर्थ का अप्रतिभास होते हुए यदि वह ज्ञातृव्यापार का लिंग बनता है तो उसकी लिंगरूपता अथसंवेदनस्वभावता प्रयुक्त हुई / तात्पर्य यह है कि संवेदन और प्रतिभास शब्द में तो नाम मात्र का अन्तर है, अब यदि ज्ञातृव्यापार का लिंगभूत संवेदन अर्थसंबंधी है तो वह अर्थप्रतिभासरूप ही हुआ, अर्थात् अर्थप्रतिभासस्वभाव होने से ही वह ज्ञातृव्यापार का लिंग बना तो अर्थाप्रतिभासस्वभावता यानी अर्थासंवेदनस्वभावता की कल्पना स्वीकारने पर संवेदन की लिंगरूपता ही कैसे संगत होगी? शेष बात का निर्णय तो पहले ही हो गया है कि अन्वयनिश्चय और व्यतिरेक निश्चय ज्ञातृव्यापार के संबंध में घटते नहीं है, इसलिये यहां पुनरुक्ति नहीं करेंगे। दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि अर्थप्रतिभासस्वभावसंवेदन, ज्ञाता और उसका बोधात्मक [प्रमाणात्मक ] व्यापार यह त्रैविध्य किसी भी अनुभव में प्रतिफलित नहीं होता, फिर संवेदनभिन्न व्यापार को कैसे माना जाय ? शंकाः-'घटमहं जानामि'-"मैं घट को जानता हूँ" यह एक निर्बाध अनुभव है, इसका अपलाप नहीं हो सकता / उसमें कोई बाधक भी उपलब्ध नहीं है / तो इसमें त्रैविध्य का सद्भाव क्यों न माना जाय ?! त्रैविध्य तो स्पष्ट ही है, जैसे- 'अहम्' यह ज्ञाता का प्रतिभास है 'जानामि' यह संवेदन का प्रतिभास हुआ, 'घटम्' यह प्रत्यक्षीभूत अर्थ का प्रतिभास है। हाँ एक व्यापार बाकी रहा, किन्तु वह भी अन्य प्रमाण से ज्ञात होता है इसलिये उसका स्वीकार किया है। तो यह कैसे कहा जाय कि-वैविध्य अनुभव में नहीं है ? ___उत्तर:-यह प्रश्न अयुक्त है, क्योंकि जिन शब्दों से आपने वैविध्य का प्रतिपादन किया वे केवल कल्पना का ही विलास है अर्थशून्य है, वास्तव में उक्त रीति से तीन वस्तु का प्रतिभास होता नहीं है। इसीलिये तो पूर्वकालीन आचार्य ने यह कहा है कि-'संवेदनरूप यह (चैतन्य) एक ही है जिसको हम कभी हर्ष में, कभी गहरे शोक में, इस प्रकार अन्य अन्य आकारों में पलटता हुआ देखते हैं। चाहे उसकी ज्ञान, ज्ञाता आदि जो कुछ भी संज्ञा करनी है वह कर लो।'