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________________ 118 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 येऽपि 'संवित्त्याख्यं फलं ज्ञातृव्यापारसद्भावे सामान्यतोदृष्टं लिंगम्' आहुः, तन्मतमप्यसम्यक्, यतः संवेदनाख्यस्य लिंगस्य किम् अर्थप्रतिभासस्वभावत्वम् ? उत तद्विपरीतत्वम् ? इति कल्पनाद्वयम् / तत्रार्थप्रतिभासस्वभावत्वे किमपरेण ज्ञातृव्यापारेण कथितेनेति वक्तव्यम् / 'तदुत्पत्तिस्तेन विना न संभवति' इति चेत् ? न, इन्द्रियादेस्तदुत्पादकस्य सद्भावाद् व्यर्थ तत्परिकल्पनम् / ‘क्रियामन्तरेण कारककलापात फलाऽनिष्पत्तेः तत्कल्पना' इति चेत? नन्विन्द्रियादिसामग्रचस्य क्व व्यापारः इति वक्तव्यम / 'क्रियोत्पत्तौ इति चेत? साऽपि क्रिया क्रियान्तरमन्तरेण कथं कारककलापादुपजायत इति पुनरपि चोद्यम् / क्रियान्तरकल्पनेऽनवस्था प्राक् प्रतिपादितैव, तन्नार्थप्रतिभासस्वभावत्वेऽन्यो व्यापारः कल्पनीयः, निष्प्रयोजनत्वात / सारांश, ज्ञातृव्यापारात्मक प्रमाणस्वरूप का निश्चय अर्थापत्ति से नहीं हो सकता। [अर्थसंवेदन रूप लिंग से ज्ञातृव्यापार की सिद्धि विकल्पग्रस्त ] जिन लोगों का कहना है कि-'संवित्ति यानी अर्थसंवेदन नामक फल, ज्ञातृव्यापार की अनुमिति में 'सामान्यतोदृष्ट' संज्ञक लिंग है'। [ सामान्यरूप से जिसमें अन्वय और व्यतिरेक दोनों व्याप्ति उपलब्ध हो वह सामान्यतो दृष्ट लिंग कहा जाता है। ]-यह मत भी समीचीन नहीं है। कारण, इस मत में विरोधी दो कल्पनाएँ है-[१] संवेदन लिंग अर्थप्रतिभासस्वभाव है ? या [2] उससे विपरीत है ? यदि संवेदन स्वयं ही अर्थप्रतिभासस्वभाव हो तब उसीको प्रमाण मान लेना चाहिये, दूसरे ज्ञातृव्यापार के कथन की फिर क्या जरूर यह बताओ! व्यापारवादीः ज्ञातृव्यापार के विना संवेदन की उपपत्ति नहीं होती, इसलिये ज्ञातृव्यापार की बात कहने योग्य है। उत्तरपक्षीः-यह बात असंगत है। संवेदन के उत्पादक इन्द्रियादि हैं और वे विद्यमान हैं तब ज्ञातृव्यापार की कल्पना निरर्थक है / व्यापारवादी:-इन्द्रियादि कारकवृद निष्क्रिय होने पर संवेदन की उत्पत्ति नहीं होती है। तात्पर्य, क्रिया के विना कारकवृद से संवेदनफल की उत्पत्ति न होने से बीच में क्रियारूप व्यापार की कल्पना होती है। उत्तरपक्षीः- यदि क्रिया से फल निष्पत्ति होती है तो इन्द्रियादि सामग्री क्या निरूपयोगी है या किसी कार्य में उसका भी व्यापार है ? यह बताओ। व्यापारवादीः- इन्द्रियादि सामग्री का व्यापार क्रिया की उत्पत्ति में है इसलिये वह निरर्थक नहीं है। उत्तरपक्षीः- इसमें और एक प्रश्न होगा कि इन्द्रियादि से जैसे क्रिया के विना संवेदन की सीधे ही उत्पत्ति नहीं होती तो इन्द्रियादि से अन्य क्रिया के विना वह प्रथम क्रिया भी कैसे उत्पन्न होगी? यदि प्रथम क्रिया की उत्पत्ति के लिये दूसरी क्रिया मानेंगे तो फिर तीसरी-चौथी भी माननी होगी और इस प्रकार अनवस्था होगी यह तो पहले भी क्रिया पक्ष में कह आये हैं / सारांश, संवेदन यदि अर्थप्रतिभासरूप हो तो दूसरे कोई व्यापार की कल्पना नहीं हो सकती क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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